शरीर को मैं और मेरा मानने से ही संसार
में रागदेष होते है | अगर शरीर मैं (स्वरुप) होता तो मैं के रहते हुए शरीर भी रहता
और शरीर का न रहने पर मैं भी नहीं रहता | अगर शरीर मेरा होता तो इसे पाने के बाद
और कुछ पाने की इच्छा न रहती| अगर इच्छा होती है तो सिद्ध हुआ वास्तव में “मेरी”
(अपनी) वस्तु अभी मिली नहीं है| और मिली हुई वस्तु (शरीरादि) “मेरी” नहीं है| शरीर
को साथ लाए नहीं साथ ले जा सकते नहीं , उसमे इच्छा अनुसार परिवर्तन कर सकते नहीं
फिर वो “मेरा” कैसे.......???
न यह शरीर तुम्हारा है न तुम शरीर के हो | ये शरीर अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, और आकाश से मिलकर बना है और इस में मिल जायेगा| परन्तु आत्मा स्थिर है | फिर तुम क्या हो| तुम अपने आपको भगवान को अर्पित करो | वही सबसे उत्तम सहारा है | जो इसके सहारे को जानता है बह भय, चिंता, शोक से सर्वदा मुक्त है |