भगवान् पहले सामान्य रीति से कहते है कि
समता युक्त मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है | बंधन का कारण गुणों का संग अर्थात
प्रकृति और उसके कार्य से माना हुआ सम्बन्ध है
(गीता १३:२१)
समता आने से प्रकृति और उसके कार्य से
सम्बन्ध नहीं रहता ; अतः मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है | जैसे संसार में अनेक
शुभ – अशुभ कर्म होते रहते है, पर वे कर्म हमे बांधते नहीं; क्योकि उन कर्मो से
हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसी प्रकार समता युक्त मनुष्य का भी इस शरीर द्वारा
होने वाले कर्मो से भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता |
समता का केवल आरम्भ हो जाये अर्थात समता
को प्राप्त करने का उद्देश्य हो जाये, जिज्ञासा हो जाये तो इस आरम्भ का कभी नाश
नहीं होता | कारण की अविनाशी का उद्देश्य भी अविनाशी ही होता है, जबकि नाशवान का
उद्देश्य भी नाशवान ही होता है | नाशवान का उद्देश्य तो नाश करता है पर समता का
उद्देश्य केवल कल्याण ही करता है |
समता का केवल थोडा सा ही अनुष्ठान हो
जाये, थोडा सा भी समता का भाव बन जाये तो बह जन्म मरण रूपी महान भय से रक्षा कर
लेता है अर्थात कल्याण कर देता है , जन्म मरण से मुक्त कर देता है | जैसे सकाम
कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे ये थोड़ी से भी समता फल देकर नष्ट नहीं
होती, प्रत्युत इसका प्रयोग केवल कल्याण में
ही होता है | यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म अगर सकाम भाव से किये जाये तो उनका नाशवान
फल (धन संपत्ति स्वर्गादि की प्राप्ति)होता है और यदि निष्काम भाव से किये जाये तो
उनका अविनाशी फल (मोक्ष) होता है | इस प्रकार यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मो के तो
दो दो फल हो सकते है पर समता का एक ही फल – कल्याण होता है | जैसे कोई मुसाफिर
चलते चलते रस्ते में रुक जाये अथवा सो जाये तो बह जहाँ से चला था वहां पुनः लौट कर
नहीं चला जाता, बल्कि जहाँ तक बह पहुँच गया वहां तक का तो रास्ता कट ही गया | ऐसे
हे जितनी समता जीवन में आ गयी उसका नाश कभी नहीं होता |
निष्काम भाव थोडा होते हुए भी सत्य है
और भय कितना भी बड़ा क्यों न हो असत्य है जैसे मन भर रुई हो तो उसे जलाने के लिए मन
भर अग्नि की जरुरत नहीं है| रुई एक मन हो या सौ मन, उसको जलाने के लिए एक
दियासिलाई ही पर्याप्त है एक दियासिलाई लगाते ही वो रुई खुद दियासिलाई अर्थात
अग्नि बन जाएगी | रुई खुद दियासिलाई की मदद करेगी | अग्नि रुई के साथ नहीं होगी,
प्रत्युत रुई खुद ज्वलनशील होने के कारण अग्नि के साथ हो जाएगी | इसी तरह असंगता
आग है और संसार रुई है | संसार से असंग होते ही संसार अपने आप नष्ट हो जायेगा
अर्थात संसार खुद आपको उलझाना छोड़ देगा; क्योकि मूल में संसार की सत्ता न होने के
कारण उससे कभी संग हुआ ही नहीं |
थोड़े से थोडा त्याग भी सत्य है और बड़ी
से बड़ी क्रिया (कर्म) भी असत्य है क्रिया का तो अंत होता है पर त्याग अनंत होता है
इसलिए यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाये तो फल देकर नष्ट हो जाती है (गीता ८:२८)
पर त्याग कभी नष्ट नहीं होता (गीता
१२:१२)
एक अहम के त्याग से अनंत सृष्टि का त्याग
हो जाता है (अहम अर्थात मैं हूँ का भाव) क्योकि अहम ने ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर
रखा है (गीता ७:५)
जैसे कितनी ही घास हो क्या वो अग्नि के
सामने टिक सकती है कितना भी अँधेरा हो क्या वो प्रकाश के सामने टिक सकता है ?
अँधेरे और प्रकाश में लड़ाई हो जाये तो क्या अँधेरा जीत जायेगा ? ऐसे ही अज्ञान और
ज्ञान में लड़ाई हो जाये तो क्या अज्ञान जीत जायेगा ? बड़े से बड़ा भय भी क्या अभय के
सामने टिक सकता है ? समता थोड़ी हो तो भी पूरी है और भय कितना भी बड़ा हो तो भी
अधूरा है जरा सी समता भी महान है और और महान भय भी सत्ताहीन है; क्योकि बह कच्चा
है |
समता अर्थात सम – विषम परिस्थियों में एक
सामान रहना | मन में कोई हलचल या विचलन न होना |