संसार में भोगो की सत्ता और महत्ता
मानने से अन्तः करण में भोगो के प्रति एक सुक्ष्म खिचाव, प्रियता, मिठास पैदा होती
है उसका नाम रस है किसी लोभी व्यक्ति को रूपए मिल जाये और कामी व्यक्ति को स्त्री
मिल जाये तो भीतर ही भीतर मन में एक खुशी आती है, यही रस है | भोग भोगने के बाद
मनुष्य कहता है ‘बड़ा मजा आया’ – यह उस रस की स्मृति है |
इसलिए भगवन कहते है इन्द्रियों को अपने
विषय से हटा लेने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते है अर्थात उसकी
इन्द्रियों से विषयों का सुख प्राप्ति के लिए सेवन नहीं होता | परन्तु स्थिर
बुद्धि न होने के कारण उन विषयों का रस निवृत्त नहीं होता अर्थात मन में रस रह
जाता है | ऐसी बुद्धि रस बुद्धि कहलाती है | जब तक सयोंगजन्य सुख में रस बुद्धि रहती
है तब तक मनुष्य प्रकर्ति तथा उसके कार्य ( क्रिया, पदार्थ, भोग ) के पराधीन रहता
है | रसबुद्धि निवृत्त होने पर पराधीनता स्वत: मिट जाती है | भोगो के सुख की
परवशता नहीं रहती | भीतर से भोगो की गुलामी नहीं रहती | जब संसार से अपनी भिन्नता
और और परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है तब यह नाशवान रस स्वतः मिट
जाता है |
कर्मयोग ज्ञानयोग तथा भक्तियोग – तीनो साधनों
से नाशवान रस की निवृत्ति हो जाती है | ज्यो ज्यो कर्मयोग में सेवा का रस, ज्ञानयोग
में तत्व के अनुभव का रस और भक्तियोग में प्रेम का रस मिलने लगता है, त्यों त्यों
नाशवान रस स्वतः छूटता जाता है |
जैसे बचपन में खिलौनों में रस मिलता था
पर बड़े होने पर रुपयों में रस मिलने लगता है, तब खिलौनों का रस स्वत: छूट जाता है रसबुद्धि
के रहते हुए जब भोगो की प्राप्ति होती है, तब मनुष्य का चित्त पिघल जाता है तथा वह
भोगो के वशीभूत हो जाता है | परन्तु रसबुद्धि के निवृत्त होने के बाद जब भोगो की
प्राप्ति होती है तब मन में कोई विकार नहीं आता जिससे भोग उसको अपनी और खींच सके |
वह भोगो के लिए व्याकुल नहीं होता | जैसे पशु के आगे रुपयों की थैली रख दे तो उसमे
लोभ-वृत्ति पैदा नहीं होती और सुन्दर स्त्री को देखकर काम-वृत्ति पैदा नहीं होती |
पशु तो रुपयों और स्त्री को जनता नहीं, पर तत्वज्ञ महापुरुष अर्थात रसबुद्धि से
निवृत्त स्थिर बुद्धि मनुष्य रुपयों को भी जनता है और स्त्री को भी फिर भी उसमे
लोभ-वृत्ति या काम-वृत्ति पैदा नहीं होती | जैसे हम अंगुली से शरीर के किसी अंग को
खुजलाते है तो खुजली मिटने पर अंगुली में कोई फर्क नहीं पड़ता , कोई विकृति नहीं
आती , ऐसे ही इन्द्रियों से विषयों का सेवन होने पर भी स्थिर बुद्धि तत्वज्ञ
मनुष्य के मन में कोई विकार नहीं आता , वह ज्यो का त्यों निर्विकार रहता है | कारण
की रस बुद्धि निवृत्त होने से वह अपने सुख के लिए किसी विषय में प्रवृत्त ही नहीं
होता |
नाशवान रस तात्कालिक होता है ज्यादा देर
नहीं ठहरता | स्त्री, रूपए आदि की प्राप्ति के समय जो रस आता है, वह बाद में नहीं
रहता | भोजन के मिलने पर जो रस आता है, वह प्रत्येक ग्रास में कम होते होते अंत
में सर्वथा मिट जाता है और भोजन से अरुचि पैदा हो जाती है |
परन्तु स्थिर बुद्धि होने पर प्राप्त अविनाशी
रस अखंड होता है और हमेशा ज्यो का त्यों रहता है |