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Sunday, August 3, 2014

स्थिर बुद्धि और भोगो का नाशवान रस....

संसार में भोगो की सत्ता और महत्ता मानने से अन्तः करण में भोगो के प्रति एक सुक्ष्म खिचाव, प्रियता, मिठास पैदा होती है उसका नाम रस है किसी लोभी व्यक्ति को रूपए मिल जाये और कामी व्यक्ति को स्त्री मिल जाये तो भीतर ही भीतर मन में एक खुशी आती है, यही रस है | भोग भोगने के बाद मनुष्य कहता है ‘बड़ा मजा आया’ – यह उस रस की स्मृति है |

इसलिए भगवन कहते है इन्द्रियों को अपने विषय से हटा लेने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते है अर्थात उसकी इन्द्रियों से विषयों का सुख प्राप्ति के लिए सेवन नहीं होता | परन्तु स्थिर बुद्धि न होने के कारण उन विषयों का रस निवृत्त नहीं होता अर्थात मन में रस रह जाता है | ऐसी बुद्धि रस बुद्धि कहलाती है | जब तक सयोंगजन्य सुख में रस बुद्धि रहती है तब तक मनुष्य प्रकर्ति तथा उसके कार्य ( क्रिया, पदार्थ, भोग ) के पराधीन रहता है | रसबुद्धि निवृत्त होने पर पराधीनता स्वत: मिट जाती है | भोगो के सुख की परवशता नहीं रहती | भीतर से भोगो की गुलामी नहीं रहती | जब संसार से अपनी भिन्नता और और परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है तब यह नाशवान रस स्वतः मिट जाता है |


कर्मयोग ज्ञानयोग तथा भक्तियोग – तीनो साधनों से नाशवान रस की निवृत्ति हो जाती है | ज्यो ज्यो कर्मयोग में सेवा का रस, ज्ञानयोग में तत्व के अनुभव का रस और भक्तियोग में प्रेम का रस मिलने लगता है, त्यों त्यों नाशवान रस स्वतः छूटता जाता है |

जैसे बचपन में खिलौनों में रस मिलता था पर बड़े होने पर रुपयों में रस मिलने लगता है, तब खिलौनों का रस स्वत: छूट जाता है रसबुद्धि के रहते हुए जब भोगो की प्राप्ति होती है, तब मनुष्य का चित्त पिघल जाता है तथा वह भोगो के वशीभूत हो जाता है | परन्तु रसबुद्धि के निवृत्त होने के बाद जब भोगो की प्राप्ति होती है तब मन में कोई विकार नहीं आता जिससे भोग उसको अपनी और खींच सके | वह भोगो के लिए व्याकुल नहीं होता | जैसे पशु के आगे रुपयों की थैली रख दे तो उसमे लोभ-वृत्ति पैदा नहीं होती और सुन्दर स्त्री को देखकर काम-वृत्ति पैदा नहीं होती | पशु तो रुपयों और स्त्री को जनता नहीं, पर तत्वज्ञ महापुरुष अर्थात रसबुद्धि से निवृत्त स्थिर बुद्धि मनुष्य रुपयों को भी जनता है और स्त्री को भी फिर भी उसमे लोभ-वृत्ति या काम-वृत्ति पैदा नहीं होती | जैसे हम अंगुली से शरीर के किसी अंग को खुजलाते है तो खुजली मिटने पर अंगुली में कोई फर्क नहीं पड़ता , कोई विकृति नहीं आती , ऐसे ही इन्द्रियों से विषयों का सेवन होने पर भी स्थिर बुद्धि तत्वज्ञ मनुष्य के मन में कोई विकार नहीं आता , वह ज्यो का त्यों निर्विकार रहता है | कारण की रस बुद्धि निवृत्त होने से वह अपने सुख के लिए किसी विषय में प्रवृत्त ही नहीं होता |

नाशवान रस तात्कालिक होता है ज्यादा देर नहीं ठहरता | स्त्री, रूपए आदि की प्राप्ति के समय जो रस आता है, वह बाद में नहीं रहता | भोजन के मिलने पर जो रस आता है, वह प्रत्येक ग्रास में कम होते होते अंत में सर्वथा मिट जाता है और भोजन से अरुचि पैदा हो जाती है |


परन्तु स्थिर बुद्धि होने पर प्राप्त अविनाशी रस अखंड होता है और हमेशा ज्यो का त्यों रहता है |    

Saturday, August 2, 2014

स्थिर बुद्धि लक्षण ३...

जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात जिसकी अपने कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि. स्त्री, पुत्र, घर, धन, आदि किसी में भी आसक्ति, लगाव, मोह नहीं रहा है | वो मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है |

वस्तु आदि के बने रहने से मैं बना रहा और और उनके बिगड़ जाने से मैं मारा गया, मेरा सब कुछ चला गया , धन के आने से मैं बड़ा हो गया और धन के जाने से मैं लुट गया – यह जो वस्तु आदि में एकात्मा स्नेह है , उसका नाम अभिस्नेह है | स्थिर बुद्धि कर्मयोगी का किसी भी वस्तु आदि में यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता | बाहर से वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि का सयोंग रहते हुए भी वह भीतर से बिलकुल निर्लिप्त रहता है |


अनुकूल परिस्थति को लेकर मन में प्रसन्नता आती है और वाणी से भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहर से भी उत्सव मनाया जाता है – यह उस परिस्थति का अभिनन्दन करना अर्थात उस परिस्थति में खुश होना, उसमे लिप्त होना, उसको अपना मान कर उसके साथ सयोंग करना हुआ | ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थति को लेकर मन में जो दुःख होता है , खिन्नता होती है , कि ये क्यों और कैसे हो गया यह नहीं होता तो अच्छा था , अब यह जल्दी मिट जाये तो ठीक है – ये उस परिस्थति में शोक करना हुआ | इसमें भी उस परिस्थति को अपना मानकर उसमे लिप्त होना और उससे संयोग करके अपना सम्बन्ध जोड़ना हुआ | जबकि सर्वथा निर्लिप्त हुआ स्नेहरहित कर्मयोगी अनुकूलता को लेकर प्रसन्न नहीं होता और प्रतिकूलता को लेकर शोक नहीं करता | तात्पर्य ये है की उसको अनुकूल प्रतिकूल , अच्छे – मंदे अवसर प्राप्त होते रहते है, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है | यही स्थिर बुद्धि है |

उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णरूप से जाग्रत हो गया है कि संसार में अच्छे – मंदे के साथ वास्तव में मेरा कोई सम्बन्ध है ही नहीं | कारण कि ये अच्छे – मंदे अवसर तो बदलने वाले है, पर मेरा स्वरुप न बदलने वाला है | अतः न बदलने वाले के साथ बदलने वाले का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?


किसी कि बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धि से परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा को अपनी बुद्धि के अंतर्गत नहीं ला सकता | कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त है | परन्तु उस असीम परमात्मा में जब बुद्धि लीन हो जाती है , तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती | इसलिए स्थिर बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं रहती |