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Saturday, August 2, 2014

स्थिर बुद्धि लक्षण ३...

जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात जिसकी अपने कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि. स्त्री, पुत्र, घर, धन, आदि किसी में भी आसक्ति, लगाव, मोह नहीं रहा है | वो मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है |

वस्तु आदि के बने रहने से मैं बना रहा और और उनके बिगड़ जाने से मैं मारा गया, मेरा सब कुछ चला गया , धन के आने से मैं बड़ा हो गया और धन के जाने से मैं लुट गया – यह जो वस्तु आदि में एकात्मा स्नेह है , उसका नाम अभिस्नेह है | स्थिर बुद्धि कर्मयोगी का किसी भी वस्तु आदि में यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता | बाहर से वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि का सयोंग रहते हुए भी वह भीतर से बिलकुल निर्लिप्त रहता है |


अनुकूल परिस्थति को लेकर मन में प्रसन्नता आती है और वाणी से भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहर से भी उत्सव मनाया जाता है – यह उस परिस्थति का अभिनन्दन करना अर्थात उस परिस्थति में खुश होना, उसमे लिप्त होना, उसको अपना मान कर उसके साथ सयोंग करना हुआ | ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थति को लेकर मन में जो दुःख होता है , खिन्नता होती है , कि ये क्यों और कैसे हो गया यह नहीं होता तो अच्छा था , अब यह जल्दी मिट जाये तो ठीक है – ये उस परिस्थति में शोक करना हुआ | इसमें भी उस परिस्थति को अपना मानकर उसमे लिप्त होना और उससे संयोग करके अपना सम्बन्ध जोड़ना हुआ | जबकि सर्वथा निर्लिप्त हुआ स्नेहरहित कर्मयोगी अनुकूलता को लेकर प्रसन्न नहीं होता और प्रतिकूलता को लेकर शोक नहीं करता | तात्पर्य ये है की उसको अनुकूल प्रतिकूल , अच्छे – मंदे अवसर प्राप्त होते रहते है, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है | यही स्थिर बुद्धि है |

उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णरूप से जाग्रत हो गया है कि संसार में अच्छे – मंदे के साथ वास्तव में मेरा कोई सम्बन्ध है ही नहीं | कारण कि ये अच्छे – मंदे अवसर तो बदलने वाले है, पर मेरा स्वरुप न बदलने वाला है | अतः न बदलने वाले के साथ बदलने वाले का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?


किसी कि बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धि से परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा को अपनी बुद्धि के अंतर्गत नहीं ला सकता | कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त है | परन्तु उस असीम परमात्मा में जब बुद्धि लीन हो जाती है , तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती | इसलिए स्थिर बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं रहती |

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