महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन शस्त्र त्याग कर बैठ जाते है और भगवान श्रीकृष्ण से कहते है कि मैं अपने ही बंधुओ और गुरुजनों कि हत्या कर के राज्य हासिल कर भी लू तो भी तो पाप का भागी ही रहूँगा...... तब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते है .......
युद्ध में सबसे पहले जय - पराजय होती है , जय - पराजय का परिणाम होता है लाभ और हानि तथा लाभ और हानि का परिणाम होता है - सुख और दुःख | जय - पराजय में और लाभ और हानि में सुखी दुखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है | तेरा उद्देश्य तो तीनो में सम होकर अपने कर्तव्य का पालन करना है ( समता का ही गीता में महत्व है समता अर्थात किसी भी परिस्थति में समान रहना )......
अतः तू पहले यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है (अर्थात एक छत्रिय का कर्तव्य है युद्ध करना ) , जय - पराजय आदि से कुछ मतलब नहीं रखना है , फिर युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा अर्थात ससार का बंधन नहीं होगा.......
नैव पापम्वाप्स्यसी - (२:३८) गीता
हे अर्जुन , समता में स्थित होकर युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म करने से तुझे पाप और पुण्य - दोनों ही नहीं बांधेंगे |
युद्ध में सबसे पहले जय - पराजय होती है , जय - पराजय का परिणाम होता है लाभ और हानि तथा लाभ और हानि का परिणाम होता है - सुख और दुःख | जय - पराजय में और लाभ और हानि में सुखी दुखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है | तेरा उद्देश्य तो तीनो में सम होकर अपने कर्तव्य का पालन करना है ( समता का ही गीता में महत्व है समता अर्थात किसी भी परिस्थति में समान रहना )......
अतः तू पहले यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है (अर्थात एक छत्रिय का कर्तव्य है युद्ध करना ) , जय - पराजय आदि से कुछ मतलब नहीं रखना है , फिर युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा अर्थात ससार का बंधन नहीं होगा.......
नैव पापम्वाप्स्यसी - (२:३८) गीता
हे अर्जुन , समता में स्थित होकर युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म करने से तुझे पाप और पुण्य - दोनों ही नहीं बांधेंगे |
Nice...
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