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Friday, May 10, 2013

सांसारिक सोच और युद्ध ....




पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रो को देखकर वीरता में आकर युद्ध करने के लिए धनुष उठा कर  खड़े हो जाते है और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे है , युद्ध से उपरत हो रहे है और उनके हाथो से धनुष गिर रहा है युद्ध में अपनों को मारकर वे पाप का भागी नहीं होना चाहते | अर्जुन कहते है चाहे इस ओर के हो या उस ओर के : भले हो या बुरे , सदाचारी हो या दुराचारी ; पर है तो सब अपने ही कुटुम्बी | इस तरह मोह से युक्त होकर अर्जुन ये कायरतापूर्ण वचन कहते है | संसार में रचे पचे लोगो को ये वचन सही लगेंगे उन्हें लगेगा कि भगवन ने ही अर्जुन को युद्ध में लगाया | अर्जुन तो युद्ध रूपी पाप से बचना चाहते थे पर भगवान ने उनको युद्ध में लगाकर ठीक नहीं किया | परन्तु ऐसा नहीं है ....
वास्तव में भगवान ने अर्जुन से युद्ध नहीं कराया है , प्रत्युत उनको अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है | युद्ध तो अर्जुन को कर्तव्य रूप से स्वत: प्राप्त हुआ था अत: युद्ध का विचार तो अर्जुन का खुद का ही था ; वे स्वयं युद्ध में प्रवृत्त हुए थे तभी वे भगवान को निमंत्रण दे कर लाए थे | परन्तु उस विचार को अपनी बुद्धि से अनिष्ठकरक समझ कर वे युद्ध से विमुख हो रहे थे अर्थात अपने कर्तव्य के पालन से हट रहे थे इस पर भगवन ने कहा ये जो तू युद्ध नहीं करना चाहता , ये तेरा मोह है अतः समय पर जो कर्तव्य स्वत: प्राप्त हुआ है , उसका त्याग करना उचित नहीं है| अतः भगवान ने अर्जुन को युद्ध में नहीं लगाया था अपितु उन्हें सिर्फ अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया था , दिशा निर्देशन किया था |
इसको इस तरह से समझा जा सकता है कोई बद्रीधाम जा रहा है परन्तु रास्ते में उसे दिशा भ्रम हो गया अर्थात उसने दक्षिण को उत्तर समझ लिया अतः वो बद्रीधाम कि तरफ न चलकर उल्टा चलने लगा | सामने से उसको एक आदमी मिल गया उसने पूछा कि ‘भाई’ ! कहाँ जा रहे हो ? वो बोला ‘बद्रीधाम’| दूसरा आदमी बोला – बद्रीधाम इधर नहीं उधर है आप तो उलटे जा रहे है ! अतः वो आदमी उसे बद्रीधाम भेजने वाला नहीं है; किन्तु उसको दिशा का ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बताने वाला है | ऐसे ही भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है युद्ध नहीं कराया है | 

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