कर्म दो प्रकार से किये जाते है कामना
पूर्ति के लिए और कामना निबृत्ति के लिए साधारण मनुष्य तो कामना पूर्ति के लिए कर्म
करता है पर कर्मयोगी कामना निबृत्ति के लिए कर्म करता है
क्रिया और कर्म – इन दोनों में भेद है
क्रिया के साथ जब मैं कर्ता हूँ ऐसा अंहभाव रहता है तब बह क्रिया कर्म हो जाती है
और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित – तीन प्रकार का फल मिलता है (गीता १८:१९)
परन्तु जहाँ मैं कर्ता नहीं हूँ ऐसा भाव
रहता है वहाँ बह क्रिया कर्म नहीं बनती अर्थात फलदायक नहीं होती | तत्बज्ञ
महापुरुष के द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते बल्कि केवल क्रियाए मात्र होती है क्योंकि
कर्म के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही मनुष्य को बंधन में डालता है और ये ही बंधन जन्म मरण का कारण बनते है और मनुष्य को बार
बार इस दुखालय (मृत्युलोक) में आना पड़ता है
इसलिए गीता में कहा गया है “ योग कर्मसु
कौशलम “ (गीता २:५०)
कर्मो में योग ही कुशलता है अर्थात
कर्मो की सिद्धि असिद्धि में और उन कर्मो के फल प्राप्ति- अप्राप्ति में सम रहना
ही कर्मो में कुशलता है कारण की कर्मो को करते हुए भी जिनके अंतःकरण में समता रहती
है वो कर्म और उसके फल में बंधेगा नहीं |
समता ही गीता का मूल तत्ब है
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