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Monday, July 29, 2013

क्या है अपना.....?

अर्जुन के सामने युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म था भगवन उन्हें युद्ध करने की आज्ञा देते है इससे भगवान का तात्पर्य युद्ध करने से नहीं प्रत्यतुत कर्तव्य कर्म करने से है | इसलिए समय समय पर जो कर्तव्य कर्म सामने आ जाये उसे साधक को निष्काम , निर्भय तथा निसंताप होकर भगवद अर्पण बुद्धि से करना चाहिए | उसके परिणाम (सिद्धि या असिद्धि ) की तरफ नहीं देखना चाहिए | सिद्धि या असिद्धि में अनुकूलता या प्रतिकूलता में सम रहना ही विगतज्वर होना है ...

जो बस्तु अपनी नहीं है उसे अपना मानने और उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करने से ही बंधन होता है | शरिरादी बस्तुए अपनी तो है ही नहीं : और अपने लिए भी नहीं है | यदि ये अपनी होती तो इनकी प्राप्ति से हमे पूर्ण तृप्ति या संतोष हो जाता | पूर्णता का अनुभव हो जाता है | तृप्ति या पूर्णता का अनुभव उस वस्तु के मिलने से होता है जो वास्तव में अपनी है | जैसे संसार में सभी पुत्रवती स्त्रिया माताये ही है पर बालक को उन सभी माताओ के मिलने से संतोष नहीं होता बल्कि अपनी माता के मिलने से ही संतोष होता है


इंसान अगर गंभीरता पूर्वक विचार करे तो तो उसे स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगा की मिली हुए कोई वस्तु अपनी नहीं बल्कि बिछड़ने वाली है शरीर , पद , अधिकार , शिक्षा , योग्यता , धन सम्पति , जमीन आदि जो कुछ भी है संसार से ही मिला है और संसार के लिए ही है वो अपनी नहीं है अतः जो वस्तुए अपनी नहीं है वो अपने लिए कैसे हो सकती है ...  

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