अर्जुन न तो स्वर्ग चाहते थे न ही राज्य
चाहते थे | वे केवल युद्ध से होने वाले अपने ही लोगो की हत्या के पाप से बचना चाहते
थे | इसलिए भगवान मानो ये कहते है कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता , पर पाप
से बचना चाहता है तो युद्धरूपी कर्तव्य को समतापूर्वक कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा
| कारण कि पाप लगने में युद्ध करना हेतु नहीं है बल्कि पछ्पात, कामना, स्वार्थ,
अहंकार है | युद्ध तो तेरा कर्तव्य है (क्योकि अर्जुन छत्रिय धर्म से संयुक्त थे) और
कर्तव्य न करने से ही पाप लगता है
गीता व्यवहार में परमार्थ कि अदभुद कला
बताती है , जिसमे मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरह
के व्यवहार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके | अन्य ग्रन्थ तो प्राय: ये कहते है कि
अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधू हो जाओ , एकांत में चले जाओ;
क्योकि व्यवहार और परमार्थ—दोनों एक साथ नहीं चल सकते | परन्तु गीता कहती है आप
जहाँ हैं, जिस मत को मानते है, जिस सिद्धांत को मानते हैं, जिस धर्म, संप्रदाय,
वर्ण, आश्रम, आदि को मानते है , उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलो तो कल्याण हो
जायेगा एकांत में रह कर वर्षों तक जिस साधना करने पर जिस तत्व कि प्राप्ति होती थी
, उसी तत्व कि प्राप्ति गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायेगी | सिद्धि असिद्धि
में सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य कर्म करना हे गीता के अनुसार व्यवहार करना
है |
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