इतना मिल गया, इतना और मिल जाये; फिर
ऐसा मिलता ही रहे ऐसे धन, जमीन, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरफ बढती हुई वृत्ति का नाम लोभ है |
मनुष्य संयोग का जितना सुख लेता है
वियोग का उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है | संयोग में इतना सुख नहीं होता है जितना
वियोग में दुःख होता है |
अभी हमारे पास जिन वस्तुओ का अभाव है
उनके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे है | परन्तु जब वे
वस्तुए मिलने के बाद फिर विछुड़ जाती है तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है तात्पर्य
है की पहले वस्तुओ का जो निरंतर अभाव था वो इतना दुखदायी नही था जितना वस्तुओ का
संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदाई है |
ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन
वस्तुओ का अभाव मानता है, उन वस्तुओ को बह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता
है | विचार किया जाये तो जिन वस्तुओ अभी अभाव है , बीच में प्रारब्धानुसारउनकी
प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा |
अतः हमारी तो वो ही अवस्था रही
जो वस्तुओ के मिलने से पहले थी बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओ को पाने के लिए केवल
दुःख ही दुःख भोगना पड़ा | बीच में वस्तुओ के संयोग से जो थोडा सा सुख हुआ है, वो
केवल लोभके कारण ही महसूस हुआ | अगर भीतर में लोभ रूपी दोष न हो तो संयोग से सुख
हो ही नहीं सकता ऐसे ही मोह रूपी दोष न हो तो कुटुम्बियो से सुख हो ही नहीं सकता,
लालच रूपी दोष न हो तो संग्रह से सुख हो ही नहीं सकता | तात्पर्य ये है संसार का
सुख किसी न किसी दोष से ही होता है कोई भी दोष न होने से संसार से सुख हो ही नहीं
सकता | परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता | यह लोभ उसके विवेक
विचार को लुप्त कर देता है |
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