यघपि अर्जुन अपने मन में युद्ध से
सर्वथा निवृत्त होने को श्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पाप से
बचने को उनको युद्ध से उपराम होने के सिवाय
दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था | इसलिए वे
युद्ध से उपराम होना चाहते थे और
उपराम होने को गुण मानते थे कायरता रूपी दोष नहीं परन्तु
भगवान ने अर्जुन की इस
उपरति को कायरता और ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता कहा, तो अर्जुन को
ऐसा विचार हुआ की
युद्ध से निवृत्त होना मेरे लिए उचिंत नहीं है | ये तो एक तरह से कायरता ही
है जो
मेरे स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध है; क्योकि मेरे छत्रिय स्वभाव में दीनता और पलायन
(पीठदिखाना) ये दोनों ही नहीं है |
एक तो कायरता दोष के कारण मेरा स्वभाव्
एक तरह से दब गया है और दूसरी बात मैं अपनी बुद्धि
से धर्म के बिषय में कोई निर्णय
नहीं ले पा रहा हूँ मेरी बुद्धि में ऐसी मूढता छा गयी है की धर्म के
बिषय में मेरी
बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है |
धर्म संकट में फंसे अर्जुन दो बातो में
उलझ जाते है कि एक तरफ तो कुटुम्ब का नाश करना ,
पूज्यजनों को मारना अधर्म है और
दूसरी तरफ युद्ध करना छत्रिय का धर्म है इस प्रकार कुटुम्बियो
को देखते हुए युद्ध
नहीं करना चाहिए और छत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना चाहिए इन दो बातो को
लेकर
अर्जुन धर्म संकट में है |
इसीलिए अर्जुन
भगवन से पूछते है की जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाये , ऐसे बात मेरे से
कहिये |
अर्जुन के मन में
हलचल होने से और अब यहाँ अपने कल्याण की बात पूछने से यह सिद्ध होता है
कि मनुष्य
जिस स्थिति में स्थित है उसी स्थिति में संतोष करता रहता है तो उसके भीतर अपने
असली उद्देश्य की जागृति नहीं होती, वास्तविक उद्देश्य - कल्याण की जागृति तभी
होती है जब
मनुष्य अपनी वर्तमान की स्थिति से असंतुष्ट हो जाये |
कारण ये क्योकि हम अपने चारो तरफ एक
भ्रामक ज्ञान से घिरे है और एक भ्रम में जी रहे है | ये भ्रामक ज्ञान ही हमे हमारे
इस दुनिया में होने, अपना - पराया , ये तेरा वो मेरा आदि होने का एहसास कराता है |
सारी उम्र हम इसी भ्रम में उलझे रहते है पर कभी अपने असल उद्देश्य की तरफ नहीं जा
पाते | हम इसी भ्रम में संतुष्ट या असंतुष्ट होते रहते है लेकिन इस संतुष्टि या
असंतुष्टि का कारण भौतिक पदार्थो की प्राप्ति या अप्राप्ति होता है जो की खुद एक
नया भ्रम है | हर मनुष्य के पास अपना एक भ्रम है हम आपस में एक दुसरे से ये भ्रम
बदल तक नहीं सकते | एक भ्रम से निकलकर दुसरे भ्रम में जाना तक मनुष्य के बस की बात
नहीं है | अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हो जाना इस भ्रम से असंतुष्ट हो जाना
है अर्थात इस भ्रम में और ना जीना | इस भ्रम से बाहर निकल कर असल उद्देश्य की
प्राप्ति करना |
भ्रम वो होता है जो एक झटके मात्र से
टूट जाये और देखा जाये तो समस्त संसार, इसमें हमारा होना या चले जाना, सुख या दुःख
, ये सब एक झटके मात्र से खत्म हो सकता है |
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