अपने कल्याण की बात पूछने अर्जुन के मन
में ये भाव पैदा हुआ कि कल्याण की बात तो गुरु
से पूछी जाती है, सारथि से नहीं | इस
बात को लेकर अर्जुन के मन में जो रथीपन का भाव था, जिसके
कारण वो भगवन को ये आज्ञा दे रहे थे की 'हे
अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओ के बीच खड़ा कीजिये ', वह
भाव मिट जाता है और अपने कल्याण की बात पूछने के लिए अर्जुन भगवान् के शिष्य हो
जाते है और कहते है 'महाराज मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा
लेने का पात्र हूं, आप मेरे कल्याण की बात कहिये' |
'शाधि मं त्वां
प्रपन्नम' -- गुरु तो उपदेश दे देंगे जिस मार्ग
का ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पर मार्ग पर तो स्वयं शिष्य को हे चलना
पड़ेगा, अपना कल्याण तो शिष्य को ही करना पड़ेगा | मैं तो ऐसा नहीं चाहता भगवान्
उपदेश दे और मैं उसका अनुष्ठान करू; क्योकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा | अतः अपने
कल्याण की जिम्मेदारी मैं अपने पर क्यों रखूँ ? गुरु पर ही क्यों न छोड़ दूँ ! जैसे
केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहने वाले बालक बीमार हो जाये, उसकी बीमारी को दूर
करने के लिए औषधि स्वयं माँ को खानी पड़ती है, बालक को नहीं | इसी तरह मैं भी
सर्वथा गुरु के शरण हो जाऊ, गुरु पर ही निर्भर हो जाऊ, तो मेरे कल्याण का पूरा
दायित्व गुरु पर ही आ जायेगा, स्वयं गुरु को ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा -- इस भाव से अर्जुन कहते है कि मैं आपकी शरण हूँ
मेरा कल्याण कीजिये |
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