लोगो के भीतर प्रायः ये बात बैठी हुई है
कि मन लगने से ही भजन स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करने से क्या लाभ ?
परन्तु गीता की दृष्टि में मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है | गीता की दृष्टि में
ऊँची चीज है – समता | दुसरे लक्षण आये या न आये , जिसमे समता आ गयी गीता उसे सिद्ध
कह देती है | जिसमे दूसरे सब लक्षण आ जाये पर समता न आये गीता उसे सिद्ध नहीं कहती
|
समता दो तरह की होती है – अन्तःकरण
की समता और स्वरुप की समता | समरूप
परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है उस समरूप परमात्मा में जो स्थित हो गया, उसने
संसारमात्र पर विजय प्राप्त कर ली ,वह
जीवन्मुक्त हो गया | परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से
होती है |
(गीता ५:१९)
अन्तःकरण की समता है – सिद्धि
असिद्धि में सम रहना | अर्थात किसी भी स्थिति में मन को शांत
रखना, समान रखना | प्रसंशा
हो जाये अथवा निंदा हो जाये, कार्य
सफल हो जाये या असफल हो जाये, लाखो
रुपए आ जाये या लाखो रूपए चले जाये पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो | सुख
दुःख , हर्ष शोक आदि न हो | मन
विचलित न हो |
(गीता ५:२०)
इस समता का कभी नाश नहीं होता | कल्याण
के सिवा इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं | जन्म-
मरणरूपी महान भय से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति ही इस समता का फल है |
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत, आदि
कोई भी पुण्य कर्म करे , वह फल देकर नष्ट हो जाता है ; परन्तु
साधन करते करते अन्तःकरण में थोड़ी सी भी समता आ जाये तो वह नष्ट नहीं होती, बल्कि
कल्याण कर देती है , साधन में समता जितनी ऊँची चीज है, मन
की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है | मन
एकाग्र होने से सिद्धिया तो प्राप्त हो जाती है , पर
कल्याण नहीं होता | परन्तु समता आने से मनुष्य संसार बंधन
से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है | (गीता
५:३)
साधक के अंतःकरण में अनुकूल-प्रतिकूल
वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में जितनी समता आ जाती है उतनी समता अटल हो
जाती है इस समता का किसी भी काल में नाश नहीं हो सकता | यह समता, साधन सामग्री कभी
किंचितमात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यो की त्यों सुरक्षित रहती है;
क्योकि यह सत् है, सदा रहने वाली है
समता की महिमा भगवन ने कुछ इस प्रकार
गीता में कही है ...
कर्मबन्ध प्रहास्यसि -- समता के द्वारा मनुष्य कर्म बंधन से
मुक्त हो जाता है |
नेहाभिकर्मनशोअस्ति -- इसके आरम्भ का भी नाश नहीं होता |
प्रत्यवायो न विघते -- इसके अनुष्ठान का उल्टा फल भी नहीं होता
|
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्या त्रायते मेह्तो भयात -- इसका थोडा सा भी अनुष्ठान जन्म – मरण
रूपी महान भय से रक्षा कर लेता है |
(गीता २:३९, २:४०)
(यहाँ उल्टा फल कहने का अर्थ है कि इसका
कोई नुकसान नहीं होता उदाहरण के लिए सकाम भाव से किये जाने वाले कर्म में अगर
मंत्रोंउच्चारण, अनुष्ठान,विधि आदि की कोई त्रुटी हो जाये तो उसका उल्टा फल हो
जाता है | परन्तु जितनी समता अनुष्ठान में, जीवन में आ गयी है, उसमे व्यवहार आदि
की कोई भूल हो जाये, सावधानी में कोई कमी रह जाये तो उसका फल (बंधन) नहीं होता |
जैसे कोई हमारे यहाँ नौकरी करता हो और अँधेरे में लालटेन जलाते समय कभी उसके हाथ
से लालटेन गिरकर टूट जाये तो हम उस पर नाराज होते है | परन्तु उस समय जो हमारा
मित्र हो जो हमारे से कभी कुछ चाहता नहीं, उसके हाथ से लालटेन गिरकर टूट जाये तो हम
उस पर नाराज नहीं होते, प्रत्युत कहते है हमारे हाथ से भी तो टूट सकती थी तुम्हारे
हाथ से टूट गयी तो क्या हुआ ? कोई बात नहीं | अतः जो सकाम भाब से कर्म करता है
उसके कर्म का तो उल्टा फल हो सकता है, पर जो किसी प्रकार का फल चाहता ही नहीं,
उसके अनुष्ठान का फल उल्टा कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता |)
अतः भगवान ने गीता में समता को सबसे
ऊँचा बताया है | सम और बिषम दोनों ही परिस्थितियों में एक समान रहना ही समता है |