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Wednesday, August 3, 2016

शरणागति.....

अपने कल्याण की बात पूछने अर्जुन के मन में ये भाव पैदा हुआ कि कल्याण की बात तो गुरु से पूछी जाती है, सारथि से नहीं | इस बात को लेकर अर्जुन के मन में जो रथीपन का भाव था, जिसके कारण वो भगवन को ये आज्ञा दे रहे थे की 'हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओ के बीच खड़ा कीजिये ', वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याण की बात पूछने के लिए अर्जुन भगवान् के शिष्य हो जाते है और कहते है 'महाराज मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा लेने का पात्र हूं, आप मेरे कल्याण की बात कहिये' |




'शाधि मं त्वां प्रपन्नम' -- गुरु तो उपदेश दे देंगे जिस मार्ग का ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पर मार्ग पर तो स्वयं शिष्य को हे चलना पड़ेगा, अपना कल्याण तो शिष्य को ही करना पड़ेगा | मैं तो ऐसा नहीं चाहता भगवान् उपदेश दे और मैं उसका अनुष्ठान करू; क्योकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा | अतः अपने कल्याण की जिम्मेदारी मैं अपने पर क्यों रखूँ ? गुरु पर ही क्यों न छोड़ दूँ ! जैसे केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहने वाले बालक बीमार हो जाये, उसकी बीमारी को दूर करने के लिए औषधि स्वयं माँ को खानी पड़ती है, बालक को नहीं | इसी तरह मैं भी सर्वथा गुरु के शरण हो जाऊ, गुरु पर ही निर्भर हो जाऊ, तो मेरे कल्याण का पूरा दायित्व गुरु पर ही आ जायेगा, स्वयं गुरु को ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा --  इस भाव से अर्जुन कहते है कि मैं आपकी शरण हूँ मेरा कल्याण कीजिये |

Saturday, July 30, 2016

मनुष्य जन्म का असली उद्देश्य...

यघपि अर्जुन अपने मन में युद्ध से सर्वथा निवृत्त होने को श्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पाप से 
बचने को उनको युद्ध से उपराम होने के सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था | इसलिए वे
युद्ध से उपराम होना चाहते थे और उपराम होने को गुण मानते थे कायरता रूपी दोष नहीं परन्तु
भगवान ने अर्जुन की इस उपरति को कायरता और ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता कहा, तो अर्जुन को
ऐसा विचार हुआ की युद्ध से निवृत्त होना मेरे लिए उचिंत नहीं है | ये तो एक तरह से कायरता ही
है जो मेरे स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध है; क्योकि मेरे छत्रिय स्वभाव में दीनता और पलायन
(पीठदिखाना) ये दोनों ही नहीं है |


एक तो कायरता दोष के कारण मेरा स्वभाव् एक तरह से दब गया है और दूसरी बात मैं अपनी बुद्धि
से धर्म के बिषय में कोई निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ मेरी बुद्धि में ऐसी मूढता छा गयी है की धर्म के
बिषय में मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है |

धर्म संकट में फंसे अर्जुन दो बातो में उलझ जाते है कि एक तरफ तो कुटुम्ब का नाश करना ,
पूज्यजनों को मारना अधर्म है और दूसरी तरफ युद्ध करना छत्रिय का धर्म है इस प्रकार कुटुम्बियो
को देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिए और छत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना चाहिए इन दो बातो को
लेकर अर्जुन धर्म संकट में है |

इसीलिए अर्जुन भगवन से पूछते है की जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाये , ऐसे बात मेरे से 
कहिये |


अर्जुन के मन में हलचल होने से और अब यहाँ अपने कल्याण की बात पूछने से यह सिद्ध होता है 
कि मनुष्य जिस स्थिति में स्थित है उसी स्थिति में संतोष करता रहता है तो उसके भीतर अपने 
असली उद्देश्य की जागृति नहीं होती, वास्तविक उद्देश्य - कल्याण की जागृति तभी होती है जब 
मनुष्य अपनी वर्तमान की स्थिति से असंतुष्ट हो जाये |

कारण ये क्योकि हम अपने चारो तरफ एक भ्रामक ज्ञान से घिरे है और एक भ्रम में जी रहे है | ये भ्रामक ज्ञान ही हमे हमारे इस दुनिया में होने, अपना - पराया , ये तेरा वो मेरा आदि होने का एहसास कराता है | सारी उम्र हम इसी भ्रम में उलझे रहते है पर कभी अपने असल उद्देश्य की तरफ नहीं जा पाते | हम इसी भ्रम में संतुष्ट या असंतुष्ट होते रहते है लेकिन इस संतुष्टि या असंतुष्टि का कारण भौतिक पदार्थो की प्राप्ति या अप्राप्ति होता है जो की खुद एक नया भ्रम है | हर मनुष्य के पास अपना एक भ्रम है हम आपस में एक दुसरे से ये भ्रम बदल तक नहीं सकते | एक भ्रम से निकलकर दुसरे भ्रम में जाना तक मनुष्य के बस की बात नहीं है | अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हो जाना इस भ्रम से असंतुष्ट हो जाना है अर्थात इस भ्रम में और ना जीना | इस भ्रम से बाहर निकल कर असल उद्देश्य की प्राप्ति करना |

भ्रम वो होता है जो एक झटके मात्र से टूट जाये और देखा जाये तो समस्त संसार, इसमें हमारा होना या चले जाना, सुख या दुःख , ये सब एक झटके मात्र से खत्म हो सकता है |  

Wednesday, June 29, 2016

संयोग के बाद वियोग....

इतना मिल गया, इतना और मिल जाये; फिर ऐसा मिलता ही रहे ऐसे धन, जमीन, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरफ बढती हुई वृत्ति का नाम लोभ है |

मनुष्य संयोग का जितना सुख लेता है वियोग का उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है | संयोग में इतना सुख नहीं होता है जितना वियोग में दुःख होता है |




अभी हमारे पास जिन वस्तुओ का अभाव है उनके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे है | परन्तु जब वे वस्तुए मिलने के बाद फिर विछुड़ जाती है तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है तात्पर्य है की पहले वस्तुओ का जो निरंतर अभाव था वो इतना दुखदायी नही था जितना वस्तुओ का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदाई है |

ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओ का अभाव मानता है, उन वस्तुओ को बह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है | विचार किया जाये तो जिन वस्तुओ अभी अभाव है , बीच में प्रारब्धानुसारउनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा | 

अतः हमारी तो वो ही अवस्था रही जो वस्तुओ के मिलने से पहले थी बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओ को पाने के लिए केवल दुःख ही दुःख भोगना पड़ा | बीच में वस्तुओ के संयोग से जो थोडा सा सुख हुआ है, वो केवल लोभके कारण ही महसूस हुआ | अगर भीतर में लोभ रूपी दोष न हो तो संयोग से सुख हो ही नहीं सकता ऐसे ही मोह रूपी दोष न हो तो कुटुम्बियो से सुख हो ही नहीं सकता, लालच रूपी दोष न हो तो संग्रह से सुख हो ही नहीं सकता | तात्पर्य ये है संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है कोई भी दोष न होने से संसार से सुख हो ही नहीं सकता | परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता | यह लोभ उसके विवेक विचार को लुप्त कर देता है |

Friday, March 11, 2016

भगवान् के अनुसार समता के लाभ ...

भगवान् पहले सामान्य रीति से कहते है कि समता युक्त मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है | बंधन का कारण गुणों का संग अर्थात प्रकृति और उसके कार्य से माना हुआ सम्बन्ध है
(गीता १३:२१)

समता आने से प्रकृति और उसके कार्य से सम्बन्ध नहीं रहता ; अतः मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है | जैसे संसार में अनेक शुभ – अशुभ कर्म होते रहते है, पर वे कर्म हमे बांधते नहीं; क्योकि उन कर्मो से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसी प्रकार समता युक्त मनुष्य का भी इस शरीर द्वारा होने वाले कर्मो से भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता |

समता का केवल आरम्भ हो जाये अर्थात समता को प्राप्त करने का उद्देश्य हो जाये, जिज्ञासा हो जाये तो इस आरम्भ का कभी नाश नहीं होता | कारण की अविनाशी का उद्देश्य भी अविनाशी ही होता है, जबकि नाशवान का उद्देश्य भी नाशवान ही होता है | नाशवान का उद्देश्य तो नाश करता है पर समता का उद्देश्य केवल कल्याण ही करता है |

समता का केवल थोडा सा ही अनुष्ठान हो जाये, थोडा सा भी समता का भाव बन जाये तो बह जन्म मरण रूपी महान भय से रक्षा कर लेता है अर्थात कल्याण कर देता है , जन्म मरण से मुक्त कर देता है | जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे ये थोड़ी से भी समता फल देकर नष्ट नहीं होती,  प्रत्युत इसका प्रयोग केवल कल्याण में ही होता है | यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म अगर सकाम भाव से किये जाये तो उनका नाशवान फल (धन संपत्ति स्वर्गादि की प्राप्ति)होता है और यदि निष्काम भाव से किये जाये तो उनका अविनाशी फल (मोक्ष) होता है | इस प्रकार यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मो के तो दो दो फल हो सकते है पर समता का एक ही फल – कल्याण होता है | जैसे कोई मुसाफिर चलते चलते रस्ते में रुक जाये अथवा सो जाये तो बह जहाँ से चला था वहां पुनः लौट कर नहीं चला जाता, बल्कि जहाँ तक बह पहुँच गया वहां तक का तो रास्ता कट ही गया | ऐसे हे जितनी समता जीवन में आ गयी उसका नाश कभी नहीं होता |
निष्काम भाव थोडा होते हुए भी सत्य है और भय कितना भी बड़ा क्यों न हो असत्य है जैसे मन भर रुई हो तो उसे जलाने के लिए मन भर अग्नि की जरुरत नहीं है| रुई एक मन हो या सौ मन, उसको जलाने के लिए एक दियासिलाई ही पर्याप्त है एक दियासिलाई लगाते ही वो रुई खुद दियासिलाई अर्थात अग्नि बन जाएगी | रुई खुद दियासिलाई की मदद करेगी | अग्नि रुई के साथ नहीं होगी, प्रत्युत रुई खुद ज्वलनशील होने के कारण अग्नि के साथ हो जाएगी | इसी तरह असंगता आग है और संसार रुई है | संसार से असंग होते ही संसार अपने आप नष्ट हो जायेगा अर्थात संसार खुद आपको उलझाना छोड़ देगा; क्योकि मूल में संसार की सत्ता न होने के कारण उससे कभी संग हुआ ही नहीं |

थोड़े से थोडा त्याग भी सत्य है और बड़ी से बड़ी क्रिया (कर्म) भी असत्य है क्रिया का तो अंत होता है पर त्याग अनंत होता है इसलिए यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाये तो फल देकर नष्ट हो जाती है (गीता ८:२८)

पर त्याग कभी नष्ट नहीं होता (गीता १२:१२)

एक अहम के त्याग से अनंत सृष्टि का त्याग हो जाता है (अहम अर्थात मैं हूँ का भाव) क्योकि अहम ने ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रखा है (गीता ७:५)


जैसे कितनी ही घास हो क्या वो अग्नि के सामने टिक सकती है कितना भी अँधेरा हो क्या वो प्रकाश के सामने टिक सकता है ? अँधेरे और प्रकाश में लड़ाई हो जाये तो क्या अँधेरा जीत जायेगा ? ऐसे ही अज्ञान और ज्ञान में लड़ाई हो जाये तो क्या अज्ञान जीत जायेगा ? बड़े से बड़ा भय भी क्या अभय के सामने टिक सकता है ? समता थोड़ी हो तो भी पूरी है और भय कितना भी बड़ा हो तो भी अधूरा है जरा सी समता भी महान है और और महान भय भी सत्ताहीन है; क्योकि बह कच्चा है |

समता अर्थात सम – विषम परिस्थियों में एक सामान रहना | मन में कोई हलचल या विचलन न होना |

Wednesday, March 9, 2016

समता सम्बन्धी विशेष बात ....

लोगो के भीतर प्रायः ये बात बैठी हुई है कि मन लगने से ही भजन स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करने से क्या लाभ ? परन्तु गीता की दृष्टि में मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है | गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है – समता | दुसरे लक्षण आये या न आये , जिसमे समता आ गयी गीता उसे सिद्ध कह देती है | जिसमे दूसरे सब लक्षण आ जाये पर समता न आये गीता उसे सिद्ध नहीं कहती |

समता दो तरह की होती है अन्तःकरण की समता और स्वरुप की समता | समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है उस समरूप परमात्मा में जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्र पर विजय प्राप्त कर ली ,वह जीवन्मुक्त हो गया | परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से होती है |
(गीता ५:१९)

अन्तःकरण की समता है सिद्धि असिद्धि में सम रहना | अर्थात किसी भी स्थिति में मन को शांत रखना, समान रखना | प्रसंशा हो जाये अथवा निंदा हो जाये, कार्य सफल हो जाये या असफल हो जाये, लाखो रुपए आ जाये या लाखो रूपए चले जाये पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो | सुख दुःख , हर्ष शोक आदि न हो | मन विचलित न हो |
(गीता ५:२०)


इस समता का कभी नाश नहीं होता | कल्याण के सिवा इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं | जन्म- मरणरूपी महान भय से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति ही इस समता का फल है |
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत, आदि कोई भी पुण्य कर्म करे , वह फल देकर नष्ट हो जाता है ; परन्तु साधन करते करते अन्तःकरण में थोड़ी सी भी समता आ जाये तो वह नष्ट नहीं होती, बल्कि कल्याण कर देती है , साधन में समता जितनी ऊँची चीज है, मन की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है | मन एकाग्र होने से सिद्धिया तो प्राप्त हो जाती है , पर कल्याण नहीं होता | परन्तु समता आने से मनुष्य संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है | (गीता ५:३)

साधक के अंतःकरण में अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में जितनी समता आ जाती है उतनी समता अटल हो जाती है इस समता का किसी भी काल में नाश नहीं हो सकता | यह समता, साधन सामग्री कभी किंचितमात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यो की त्यों सुरक्षित रहती है; क्योकि यह सत् है, सदा रहने वाली है

समता की महिमा भगवन ने कुछ इस प्रकार गीता में कही है ...

कर्मबन्ध प्रहास्यसि -- समता के द्वारा मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है |

नेहाभिकर्मनशोअस्ति -- इसके आरम्भ का भी नाश नहीं होता |

प्रत्यवायो न विघते -- इसके अनुष्ठान का उल्टा फल भी नहीं होता |

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्या त्रायते मेह्तो भयात -- इसका थोडा सा भी अनुष्ठान जन्म – मरण रूपी                                         महान भय से रक्षा कर लेता है |
                                                             (गीता २:३९, २:४०) 
(यहाँ उल्टा फल कहने का अर्थ है कि इसका कोई नुकसान नहीं होता उदाहरण के लिए सकाम भाव से किये जाने वाले कर्म में अगर मंत्रोंउच्चारण, अनुष्ठान,विधि आदि की कोई त्रुटी हो जाये तो उसका उल्टा फल हो जाता है | परन्तु जितनी समता अनुष्ठान में, जीवन में आ गयी है, उसमे व्यवहार आदि की कोई भूल हो जाये, सावधानी में कोई कमी रह जाये तो उसका फल (बंधन) नहीं होता | जैसे कोई हमारे यहाँ नौकरी करता हो और अँधेरे में लालटेन जलाते समय कभी उसके हाथ से लालटेन गिरकर टूट जाये तो हम उस पर नाराज होते है | परन्तु उस समय जो हमारा मित्र हो जो हमारे से कभी कुछ चाहता नहीं, उसके हाथ से लालटेन गिरकर टूट जाये तो हम उस पर नाराज नहीं होते, प्रत्युत कहते है हमारे हाथ से भी तो टूट सकती थी तुम्हारे हाथ से टूट गयी तो क्या हुआ ? कोई बात नहीं | अतः जो सकाम भाब से कर्म करता है उसके कर्म का तो उल्टा फल हो सकता है, पर जो किसी प्रकार का फल चाहता ही नहीं, उसके अनुष्ठान का फल उल्टा कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता |)

अतः भगवान ने गीता में समता को सबसे ऊँचा बताया है | सम और बिषम दोनों ही  परिस्थितियों में एक समान रहना ही समता है |

Monday, September 15, 2014

दिन और रात....

जिनकी इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं है जो भोगो में आसक्त है, वे सब परमात्मतत्व की तरफ से सोये हुए है | परमात्मा क्या है ? तत्वज्ञान क्या है ? हम दुःख क्यों पा रहे है ? संताप जलन क्यों हो रही है ? हम जो कुछ कर रहे है उसका परिणाम क्या होगा ?

इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है, उनके लिए बिलकुल अँधेरा है |


जैसे पशु पक्षी आदि दिन भर खाने पीने में ही लगे रहते है | ऐसे ही जो मनुष्य दिन रात खाने पीने
में, सुख आराम में, भोगो और संग्रह में, धन कमाने में ही लगे हुए है उन मनुष्यों की गणना भी पशु पक्षी आदि में ही है | कारण की परमात्मतत्व से विमुख रहने में पशु पक्षी आदि में और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है | दोनों ही परमात्मतत्व की तरफ से सोये हुए है   हाँ अगर कोई अंतर है तो वह यह है कि पशु पक्षी आदि में विवेक शक्ति इतनी जाग्रत नहीं होती है, इसलिए वो खाने पीने आदि में ही लगे रहते है और मनुष्यों में भगवन कि कृपा से वह विवेक शक्ति जाग्रत है जिससे वह अपना कल्याण कर सके | प्राणीमात्र कि सेवा कर सके | परमात्मा कि प्राप्ति कर सके | परन्तु उस विवेक शक्ति का दुरूपयोग करके मनुष्य पदार्थो का संग्रह करने में एवं उनका भोग करने में लग जाते है जिससे वे संसार के लिए पशुओ से भी अधिक दुःखदाई  हो जाते है कारण कि पशु तो जितने  से पेट भर जाये उतना ही खाते है , संग्रह नहीं करते; परन्तु मनुष्य को कही भी जो भी कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है, वह उसके काम में आये चाहे न आये, उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरों के काम में आने में बाधा डाल देता है |

जिन सांसारिक पदार्थो का भोग और संग्रह करने में मनुष्य अपने को बड़ा बुद्धिमान , चतुर मानते है और उसी में खुश होते है संसार और परमात्मतत्व  को जानने वाले मननशील संयमी मनुष्य कि दृष्टि में वह सब रात के समान है ; बिलकुल अँधेरा है |


जैसे बच्चे खेलते है तो वे कंकड पत्थर, कांच के लाल पीले टुकडो को लेकर आपस में लड़ते है | अगर वह मिल जाता है तो खुश होते है कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता है तो दुखी हो जाते है कि मेरी बड़ी हानि हो गयी | परन्तु जिसके मन में कंकड पत्थर आदि का महत्व नहीं है , ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड पत्थरो के मिलने से क्या लाभ हुआ और न मिलने से क्या हानि हुई |

Sunday, August 3, 2014

स्थिर बुद्धि और भोगो का नाशवान रस....

संसार में भोगो की सत्ता और महत्ता मानने से अन्तः करण में भोगो के प्रति एक सुक्ष्म खिचाव, प्रियता, मिठास पैदा होती है उसका नाम रस है किसी लोभी व्यक्ति को रूपए मिल जाये और कामी व्यक्ति को स्त्री मिल जाये तो भीतर ही भीतर मन में एक खुशी आती है, यही रस है | भोग भोगने के बाद मनुष्य कहता है ‘बड़ा मजा आया’ – यह उस रस की स्मृति है |

इसलिए भगवन कहते है इन्द्रियों को अपने विषय से हटा लेने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते है अर्थात उसकी इन्द्रियों से विषयों का सुख प्राप्ति के लिए सेवन नहीं होता | परन्तु स्थिर बुद्धि न होने के कारण उन विषयों का रस निवृत्त नहीं होता अर्थात मन में रस रह जाता है | ऐसी बुद्धि रस बुद्धि कहलाती है | जब तक सयोंगजन्य सुख में रस बुद्धि रहती है तब तक मनुष्य प्रकर्ति तथा उसके कार्य ( क्रिया, पदार्थ, भोग ) के पराधीन रहता है | रसबुद्धि निवृत्त होने पर पराधीनता स्वत: मिट जाती है | भोगो के सुख की परवशता नहीं रहती | भीतर से भोगो की गुलामी नहीं रहती | जब संसार से अपनी भिन्नता और और परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है तब यह नाशवान रस स्वतः मिट जाता है |


कर्मयोग ज्ञानयोग तथा भक्तियोग – तीनो साधनों से नाशवान रस की निवृत्ति हो जाती है | ज्यो ज्यो कर्मयोग में सेवा का रस, ज्ञानयोग में तत्व के अनुभव का रस और भक्तियोग में प्रेम का रस मिलने लगता है, त्यों त्यों नाशवान रस स्वतः छूटता जाता है |

जैसे बचपन में खिलौनों में रस मिलता था पर बड़े होने पर रुपयों में रस मिलने लगता है, तब खिलौनों का रस स्वत: छूट जाता है रसबुद्धि के रहते हुए जब भोगो की प्राप्ति होती है, तब मनुष्य का चित्त पिघल जाता है तथा वह भोगो के वशीभूत हो जाता है | परन्तु रसबुद्धि के निवृत्त होने के बाद जब भोगो की प्राप्ति होती है तब मन में कोई विकार नहीं आता जिससे भोग उसको अपनी और खींच सके | वह भोगो के लिए व्याकुल नहीं होता | जैसे पशु के आगे रुपयों की थैली रख दे तो उसमे लोभ-वृत्ति पैदा नहीं होती और सुन्दर स्त्री को देखकर काम-वृत्ति पैदा नहीं होती | पशु तो रुपयों और स्त्री को जनता नहीं, पर तत्वज्ञ महापुरुष अर्थात रसबुद्धि से निवृत्त स्थिर बुद्धि मनुष्य रुपयों को भी जनता है और स्त्री को भी फिर भी उसमे लोभ-वृत्ति या काम-वृत्ति पैदा नहीं होती | जैसे हम अंगुली से शरीर के किसी अंग को खुजलाते है तो खुजली मिटने पर अंगुली में कोई फर्क नहीं पड़ता , कोई विकृति नहीं आती , ऐसे ही इन्द्रियों से विषयों का सेवन होने पर भी स्थिर बुद्धि तत्वज्ञ मनुष्य के मन में कोई विकार नहीं आता , वह ज्यो का त्यों निर्विकार रहता है | कारण की रस बुद्धि निवृत्त होने से वह अपने सुख के लिए किसी विषय में प्रवृत्त ही नहीं होता |

नाशवान रस तात्कालिक होता है ज्यादा देर नहीं ठहरता | स्त्री, रूपए आदि की प्राप्ति के समय जो रस आता है, वह बाद में नहीं रहता | भोजन के मिलने पर जो रस आता है, वह प्रत्येक ग्रास में कम होते होते अंत में सर्वथा मिट जाता है और भोजन से अरुचि पैदा हो जाती है |


परन्तु स्थिर बुद्धि होने पर प्राप्त अविनाशी रस अखंड होता है और हमेशा ज्यो का त्यों रहता है |