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Wednesday, July 31, 2013

भगवद गीता ..... आखिर क्या....

अर्जुन न तो स्वर्ग चाहते थे न ही राज्य चाहते थे | वे केवल युद्ध से होने वाले अपने ही लोगो की हत्या के पाप से बचना चाहते थे | इसलिए भगवान मानो ये कहते है कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता , पर पाप से बचना चाहता है तो युद्धरूपी कर्तव्य को समतापूर्वक कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा | कारण कि पाप लगने में युद्ध करना हेतु नहीं है बल्कि पछ्पात, कामना, स्वार्थ, अहंकार है | युद्ध तो तेरा कर्तव्य है (क्योकि अर्जुन छत्रिय धर्म से संयुक्त थे) और कर्तव्य न करने से ही पाप लगता है


गीता व्यवहार में परमार्थ कि अदभुद कला बताती है , जिसमे मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरह के व्यवहार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके | अन्य ग्रन्थ तो प्राय: ये कहते है कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधू हो जाओ , एकांत में चले जाओ; क्योकि व्यवहार और परमार्थ—दोनों एक साथ नहीं चल सकते | परन्तु गीता कहती है आप जहाँ हैं, जिस मत को मानते है, जिस सिद्धांत को मानते हैं, जिस धर्म, संप्रदाय, वर्ण, आश्रम, आदि को मानते है , उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलो तो कल्याण हो जायेगा एकांत में रह कर वर्षों तक जिस साधना करने पर जिस तत्व कि प्राप्ति होती थी , उसी तत्व कि प्राप्ति गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायेगी | सिद्धि असिद्धि में सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य कर्म करना हे गीता के अनुसार व्यवहार करना है |  

Monday, July 29, 2013

क्या है अपना.....?

अर्जुन के सामने युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म था भगवन उन्हें युद्ध करने की आज्ञा देते है इससे भगवान का तात्पर्य युद्ध करने से नहीं प्रत्यतुत कर्तव्य कर्म करने से है | इसलिए समय समय पर जो कर्तव्य कर्म सामने आ जाये उसे साधक को निष्काम , निर्भय तथा निसंताप होकर भगवद अर्पण बुद्धि से करना चाहिए | उसके परिणाम (सिद्धि या असिद्धि ) की तरफ नहीं देखना चाहिए | सिद्धि या असिद्धि में अनुकूलता या प्रतिकूलता में सम रहना ही विगतज्वर होना है ...

जो बस्तु अपनी नहीं है उसे अपना मानने और उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करने से ही बंधन होता है | शरिरादी बस्तुए अपनी तो है ही नहीं : और अपने लिए भी नहीं है | यदि ये अपनी होती तो इनकी प्राप्ति से हमे पूर्ण तृप्ति या संतोष हो जाता | पूर्णता का अनुभव हो जाता है | तृप्ति या पूर्णता का अनुभव उस वस्तु के मिलने से होता है जो वास्तव में अपनी है | जैसे संसार में सभी पुत्रवती स्त्रिया माताये ही है पर बालक को उन सभी माताओ के मिलने से संतोष नहीं होता बल्कि अपनी माता के मिलने से ही संतोष होता है


इंसान अगर गंभीरता पूर्वक विचार करे तो तो उसे स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगा की मिली हुए कोई वस्तु अपनी नहीं बल्कि बिछड़ने वाली है शरीर , पद , अधिकार , शिक्षा , योग्यता , धन सम्पति , जमीन आदि जो कुछ भी है संसार से ही मिला है और संसार के लिए ही है वो अपनी नहीं है अतः जो वस्तुए अपनी नहीं है वो अपने लिए कैसे हो सकती है ...  

Sunday, July 7, 2013

क्रिया और कर्म

कर्म दो प्रकार से किये जाते है कामना पूर्ति के लिए और कामना निबृत्ति के लिए साधारण मनुष्य तो कामना पूर्ति के लिए कर्म करता है पर कर्मयोगी कामना निबृत्ति के लिए कर्म करता है

क्रिया और कर्म – इन दोनों में भेद है क्रिया के साथ जब मैं कर्ता हूँ ऐसा अंहभाव रहता है तब बह क्रिया कर्म हो जाती है और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित – तीन प्रकार का फल मिलता है (गीता १८:१९)
परन्तु जहाँ मैं कर्ता नहीं हूँ ऐसा भाव रहता है वहाँ बह क्रिया कर्म नहीं बनती अर्थात फलदायक नहीं होती | तत्बज्ञ महापुरुष के द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते बल्कि केवल क्रियाए मात्र होती है क्योंकि कर्म के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही मनुष्य को बंधन में डालता है और ये ही  बंधन जन्म मरण का कारण बनते है और मनुष्य को बार बार इस दुखालय (मृत्युलोक) में आना पड़ता है

इसलिए गीता में कहा गया है “ योग कर्मसु कौशलम “ (गीता २:५०)

कर्मो में योग ही कुशलता है अर्थात कर्मो की सिद्धि असिद्धि में और उन कर्मो के फल प्राप्ति- अप्राप्ति में सम रहना ही कर्मो में कुशलता है कारण की कर्मो को करते हुए भी जिनके अंतःकरण में समता रहती है वो कर्म और उसके फल में बंधेगा नहीं |


समता ही गीता का मूल तत्ब है