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Wednesday, July 16, 2014

व्यव्हार में परमार्थ ...तत्व कि प्राप्ति ..

गीता ब्यवहार में परमार्थ की विलक्षण कला बताती है , जिसे मनुष्य प्रत्येक परिस्थति में रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरह का व्यव्हार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके | अन्य ग्रन्थ तो प्राय: ये कहते है कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधू हो जाओ , एकांत में चले जाओ ; क्योकि व्यव्हार और परमार्थ— दोनों  एक साथ नहीं चल सकते | परन्तु गीता कहती है कि आप जहाँ है , जिस मत को मानते है , जिस सिद्धांत को मानते है , जिस धर्म , सम्प्रदाय , वर्ण , आश्रम आदि को मानते है , उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलो कल्याण हो जायेगा | एकांत में रह कर बरसो तक साधना करने पर ऋषि मुनियों को जिस तत्व कि प्राप्ति होती थी , उसी तत्व कि प्राप्ति गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायेगी |सिद्धि असिद्धि में सम रह कर निष्कामभाव पूर्वक कर्तव्य कर करना हे गीता के अनुसार व्यवहार करना है....


अर्जुन न तो राज्य चाहते थे न स्वर्ग चाहते थे वो तो सिर्फ युद्ध से होने वाले पाप से बचना चाहते थे | इसलिए भगवन मानो ये कहते है कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता , पर पाप से बचना चाहता है तो युद्ध रूपी कर्तव्य को समता पूर्वक कर , फिर तुझे पाप नहीं लगेगा | कारण कि पाप लगने में युद्ध हेतु नहीं है बल्कि विषमता (पछपात), कामना , स्वार्थ, अहंकार, है युद्ध तो तेरा कर्तव्य है | कर्तव्य न करने से और अकर्तव्य करने से हे पाप लगता है...
अर्थात सिद्धि असिद्धि में सामान रहकर अपने कर्तव्य का पालन करना ही व्यवहार में परमार्थ की  कला है |

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