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Thursday, July 17, 2014

समता का फल....

कर्मो को करने के दो ही तरीके हो सकते है .. सकामभावपूर्वक और निष्कामभावपूर्वक | सकामभावपूर्वक करने का अर्थ कर्मो के साथ संबंध रखना है अर्थात उनके परिणाम में सुखी या दुखी होना है परन्तु निष्कामता का अर्थ है समता से सयुक्त होना अर्थात सुख या दुःख में समान रहना |

सकामभावपूर्वक किये गए कर्मो में अगर मंत्र उच्चारण , यज्ञ विधि आदि में कोई कमी रह जाये तो उसका फल उल्टा हो जाता है जैसे कोई पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमे विधि की त्रुटि हो जाने से पुत्र का होना तो दूर रहा , घर में किसी की म्रत्यु हो जाती है अथवा विधि की कमी रहने से इतना उल्टा फल न भी हो तो भी पुत्र  पूर्ण अंगों के साथ नहीं जन्मता| परन्तु जो मनुष्य इस सम् बुद्धि  को अपने अनुष्ठान (क्रिया कलापों) में लाने का प्रयत्न करता है उसके प्रयत्न का कभी उल्टा फल नहीं हो सकता | कारण की इसके प्रयत्न में फल की इच्छा नहीं होती | जब तक फल की इच्छा रहती है तब तक समता नहीं आती और समता आने पर फल की इच्छा नहीं रहती | अतः उसके अनुष्ठान का विपरीत फल होना संभव ही नहीं |

थोड़ी सी भी समता जीवन में आचरण में आ जाये , तो यह जन्म – मरणरूपी महान भय से रक्षा कर लेती है जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है , ऐसे यह समता धन संपत्ति आदि को फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात इसका फल नाशवान धन सम्पति आदि की प्राप्ति नहीं होता| इस समता का किसी भी काल में नाश नहीं हो सकता |

जैसे कोई मुसाफिर चलते चलते रास्ते में रुक जाये अथवा सो जाये तो बह जहाँ से चला था वहाँ लौट कर नहीं आ जाता बल्कि जहाँ तक वह पहुच गया वहाँ तक तो रास्ता कट ही गया | ऐसे हे जितनी समता जीवन में आ गयी, उसका कभी नाश नहीं होता |

गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है –-- समता | दूसरे लक्षण आये न आये , जिसमे समता आ गयी गीता उसे सिद्ध कह देती है | जिसमे दूसरे सब लक्षण आ जाये पर समता न आये गीता उसे सिद्ध नहीं कहती |   

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