समता दो तरह की होती है – अन्तःकरण की
समता और स्वरुप की समता | समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है उस समरूप परमात्मा
में जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्र पर विजय प्राप्त कर ली ,वह जीवन्मुक्त हो
गया | परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से होती है |
(गीता ५:१९)
अन्तःकरण की समता है – सिद्धि असिद्धि
में सम रहना | अर्थात किसी भी स्थिति में मन को शांत रखना, समान रखना | प्रसंशा हो
जाये अथवा निंदा हो जाये, कार्य सफल हो जाये या असफल हो जाये, लाखो रुपए आ जाये या
लाखो रूपए चले जाये पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो | सुख दुःख , हर्ष शोक आदि
न हो | मन विचलित न हो |
इस समता का कभी नाश नहीं होता | कल्याण
के सिवा इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं | जन्म- मरणरूपी महान भय से मुक्ति
और मोक्ष की प्राप्ति हे इस समता का फल है |
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत, आदि कोई
भी पुण्य कर्म करे , वह फल देकर नष्ट हो जाता है ; परन्तु साधन करते करते अन्तःकरण
में थोड़ी से से भी समता आ जाये तो वह नष्ट नहीं होती, बल्कि कल्याण कर देती है , साधन
में समता जितनी ऊँची चीज है, मन की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है | मन एकाग्र
होने से सिद्धिया तो प्राप्त हो जाती है , पर कल्याण नहीं होता | परन्तु समता आने
से मनुष्य संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है | (गीता ५:३)
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