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Monday, July 21, 2014

कर्मफल का त्याग ही कर्मयोग....

भगवन अर्जुन को समझाते हुए ये कहते है .. प्राप्त कर्तव्य कर्म का पालन करने में ही तेरा अधिकार है | इसमें तू स्वतंत्र है| करण कि मनुष्य कर्मयोनि है | मनुष्य के सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करने के लिए नहीं है | पशु पक्षी आदि जड़ और व्रक्ष , लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते | देवता आदि में नया कर्म करने कि सामर्थ्य तो है , पर वे केवल पहले किये गए यज्ञ , दान, आदि शुभ कर्मो का फल भोगने के लिए ही है | वे भगवान के विधान अनुसार मनुष्यों के लिए कर्म करने कि सामग्री दे सकते है , पर केवल सुखभोग में लिप्त रहने के करण स्वयं नया कर्म नही कर सकते | नारकीय जीव भी भोग योनि होने के करण अपने दुष्कर्मो का फल भोगते है , नया कर्म नहीं कर सकते | नया कर्म करने में तो केवल मनुष्य का अधिकार है | भगवन ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करने के लिए यह अंतिम मनुष्य जन्म दिया है | अगर यह कर्मो को अपने लिए करेगा तो बंधन में पड़ जायेगा | और अगर कर्मो को न करके आलस्य प्रमाद में पड़ा रहेगा तो बार बार जन्मता मरता रहेगा | अतः भगवान कहते है कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है |

इसलिए भगवान कहते है कि तेरा कर्मो को ही करने में अधिकार है फल कि इच्छा में नहीं क्योकि जब कर्म सेवाभाव रूपी होंगे तो उनसे फल कि इच्छा स्वयं खत्म हो जायेगी ... क्योकि फल कि इच्छा तब ही होती है जब कर्म अपने लिए किये जाये | फल की इच्छा होने का मतलब ही है सकाम रूप से कर्म किया जाना | जबकि भगवान अर्जुन को निष्कामता पूर्वक कर्म करने का उपदेश देते है |


शुभ क्रियायो में फल कि इच्छा न होने पर भी मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया , किसी का हित हो गया , किसी को सुख पहुंचा – ऐसा भाव हो जाता है तो भी ये कर्म फल का हेतु बनना हुआ | अर्थात कर्मो के साथ बंधन रहा | कर्म फल में आसक्ति अर्थात प्रियता रहने से जैसा बंधन होता है , वैसा ही बंधन कर्म न करने में आलस्य , प्रमाद आदि होने में होता है अर्थात उनका भी एक सुख होता है | तात्पर्य ये हुआ कि राग आसक्ति प्रियता मोह जहां कही भी हुआ बह बांधने वाल ही हो जायेगा |

अपने कर्तव्य के द्वारा दूसरे के अधिकार कि रक्षा करना और कर्मफल अर्थात अपने अधिकार का त्याग करना ... ये ही कर्मयोग है...जो ईश्वर प्राप्ति के तीन साधनों में से एक है 

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