SHOP NOW

Monday, July 21, 2014

सुखदायी और दुखदायी परिस्थति .... क्यों ?

मनुष्य शरीर में दो बाते है – पुराने कर्मो का फलभोग और नया कर्म | दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मो का फलभोग है अर्थात कीट पतंग , पशु पक्षी , देवता , ब्रह्मा लोक तक की  योनियाँ भोग योनियाँ है | इसलिए उनके पास ऐसा करो, ऐसा मत करो – यह विधान नहीं है | पशु पक्षी , कीट पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते है , उनका वह कर्म भी फलभोग में है | कारण कि उनके द्वारा किये जाने वाला कर्म प्रारब्ध के अनुसार पहले से रचा हुआ है | परन्तु मनुष्य शरीर तो केवल नए कर्म के लिए मिला हुआ है , जिससे मनुष्य अपना उद्धार कर ले | 


इस मनुष्य शरीर में दो विभाग है ---- एक तो इसके सामने पुराने कर्मो के फलरूप में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है ; और दूसरा यह नए कर्म करता है नए कर्मो के अनुसार हे इसके भविष्य का निर्माण होता है मनुष्य में नए कर्मो को करने कि स्वतंत्रता है परन्तु अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलने में ये परतंत्र है | परन्तु अनुकूल प्रतिकूल रूप से प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके मनुष्य अपने उद्धार की साधन सामग्री बना सकता है |

मनुष्य जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थति आती है , उस परिस्थिति को मनुष्य सुखदायी या दुखदायी तो मान सकता है पर उससे सुखी या दुखी होना कर्मो का फल नहीं बल्कि मूर्खता का फल है | परिस्थिति से तादाम्य करके ही वो सुख दुःख का भोक्ता बनता है अगर मनुष्य उस परिस्थति से तादाम्य न करके उसका सदुपयोग करे , तो वही परिस्थति उसके लिए उद्धार का साधन बन जाती है |

सुखदायी परिस्थति का सदुपयोग है -- दूसरों कि सेवा करना और दुखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है – सुखभोग कि इच्छा का त्याग करना |




दुखदायी परिस्थिति आने पर मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए , बल्कि ये विचार करना चाहिए कि हमने पहले सुखभोग कि इच्छा से जो पाप किये थे वे ही पाप दुखदायी परिस्थति के रूप में आकार नष्ट हो रहे है (क्योकि कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते है फिर चाहे वे शुभ हो या अशुभ) | इससे एक लाभ ये भी हो रहा है कि हम शुद्ध हो रहे है पापकर्म नष्ट हो रहे है | दूसरा लाभ ये होता है कि हमे चेतावनी मिलती है कि हम सुखभोग के लिए पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार कि दुखदायी परिस्थति आयेगी इसलिए सुखभोग कि इच्छा से अब कोई काम नहीं करना है बल्कि प्राणिमात्र के हित के लिए ही काम करना है |

No comments:

Post a Comment