आसक्ति अर्थात मोह के त्याग का परिणाम
क्या होगा ? सिद्धि असिद्धि में समता हो जायेगी | कर्म का पूरा होना अथवा न होना
सांसारिक दृष्टि से उसका फल अनुकूल होना या प्रतिकूल होना, उस कर्म को करने से
प्रसंशा या निंदा होना आदि आदि में जो सिद्धि और असिद्धि है उसमे सम रहना चाहिए | (निंदा
होने का अर्थ ये नहीं है कि निंदनीय कर्म किया जाये अपने कर्तव्य के अनुसार कर्म
करते हुए निंदा हो भी जाये तो भी सम रहना)
कर्मयोगी कि इतनी समता अर्थात
निष्कामभाव होना चाहिए कि कर्मो कि पूर्ति हो चाहे न हो , फल कि प्राप्ति हो चाहे
न हो अपनी मुक्ति हो चाहे न हो , मुझे तो केवल कर्तव्य कर्म करना है | साधक को इस
संसार से असंगता का अनुभव न हुआ हो, उसमे समता न आई हो तो भी उसका उद्देश्य असंग
होने का सम होने का ही हो | क्योंकी जो बात उद्देश्य में आ जाती है , वही अंत में
सिद्ध हो जाती है |
समता ही योग है
अर्थात समता ही परमात्मा का स्वरुप है वह समता अन्तःकरण में निरंतर बनी रहनी चाहिए
| जिनका मन समता में स्थित हो गया , उन लोगो ने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत
लिया ; क्योकि ब्रह्मा निर्दोष और सम है ; अतः उनकी स्थिति ब्रह्मा में ही है |
(गीता २:४८)
“समता का नाम योग है” – यह योग की
परिभाषा है | इसे दूसरे शब्दों में भी कहा गया है | “दुखो के संयोग का जिसमे वियोग
है, उसका नाम योग है”
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