SHOP NOW

Wednesday, July 23, 2014

मोक्ष प्राप्ति ....

समतातुक्त मनुष्य जीवित अवस्था में ही पुण्य पाप का त्याग कर देता है अर्थात उसको पुण्य पाप नहीं लगते , वह उनसे रहित हो जाता है | समता एक ऐसी विद्या है , जिससे मनुष्य संसार में रहता हुआ संसार से सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है | जैसे कमल का पत्ता जल से ही उत्पन्न होता है और जल में ही रहता है , पर वह जल से लिप्त नहीं होता , ऐसे ही समता युक्त मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहता है | पुण्य पाप उसका स्पर्श नहीं करते अर्थात वह पुण्य पाप से असंग हो जाता है |

क्योकि रागपूर्वक किये गए कर्म कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हो वे बांधने वाले ही है ; क्योकि उन कर्मो से ब्रह्मलोक की भी प्राप्ति क्यों न हो जाये तो भी वहां से लौट कर पीछे आना ही पड़ता है
(गीता ८:१६)

कर्म तो फल के रूप में परिणित होता ही है उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता | जैसे खेती में कोई निष्कामभाव से बीज बोये , तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य ही होगा | ऐसे ही कोई निष्काम भाव से कर्म करता है , तो उसको कर्म का फल मिलेगा ही , पर वह बंधनकारक नहीं होगा | (निष्कामभाव से कर्म करने का अर्थ है उससे अपने लिए कुछ न चाहना अर्थात उसके कोई कामना या इच्छा न करना कर्म तो फल के रूप में परिणित होगा ही पर सिर्फ उससे अपना सम्बन्ध हटा लेना है फिर वो चाहे कुछ दे या न दे उसमे हर्ष या शोक नहीं करना है क्योकि उसके साथ सम्बन्ध ही बंधन है)   अतः कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है – कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता, वासना का त्याग करना | इसका त्याग करने में सभी समर्थ है |

समतायुक्त मनीषी (बुद्धिमान) साधक जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते है | कारण की समता में स्थित हो जाने से उनमे राग द्वेष , कामना, वासना , ममता, आदि दोष किंचित मात्र भी नहीं रहते , अतः उनका पुनर्जन्म का कारण ही नहीं रहता है | वे जन्म मरणरूपी बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाते है| इसी को मोक्ष प्राप्त करना कहते है | जो हर मनुष्य का उद्देश्य है | 

No comments:

Post a Comment