समतातुक्त मनुष्य जीवित अवस्था में ही
पुण्य पाप का त्याग कर देता है अर्थात उसको पुण्य पाप नहीं लगते , वह उनसे रहित हो
जाता है | समता एक ऐसी विद्या है , जिससे मनुष्य संसार में रहता हुआ संसार से
सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है | जैसे कमल का पत्ता जल से ही उत्पन्न होता है और जल
में ही रहता है , पर वह जल से लिप्त नहीं होता , ऐसे ही समता युक्त मनुष्य संसार
में रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहता है | पुण्य पाप उसका स्पर्श नहीं करते
अर्थात वह पुण्य पाप से असंग हो जाता है |
क्योकि
रागपूर्वक किये गए कर्म कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हो वे बांधने वाले ही है ;
क्योकि उन कर्मो से ब्रह्मलोक की भी प्राप्ति क्यों न हो जाये तो भी वहां से लौट
कर पीछे आना ही पड़ता है
(गीता ८:१६)
कर्म तो फल के रूप में परिणित होता ही
है उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता | जैसे खेती में कोई निष्कामभाव से बीज
बोये , तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य ही होगा | ऐसे ही
कोई निष्काम भाव से कर्म करता है , तो उसको कर्म का फल मिलेगा ही , पर वह बंधनकारक
नहीं होगा | (निष्कामभाव से कर्म करने का अर्थ है उससे अपने लिए कुछ न चाहना अर्थात
उसके कोई कामना या इच्छा न करना कर्म तो फल के रूप में परिणित होगा ही पर सिर्फ
उससे अपना सम्बन्ध हटा लेना है फिर वो चाहे कुछ दे या न दे उसमे हर्ष या शोक नहीं
करना है क्योकि उसके साथ सम्बन्ध ही बंधन है) अतः
कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है – कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता, वासना
का त्याग करना | इसका त्याग करने में सभी समर्थ है |
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