शरीर में ममता, अहंता करना तथा शरीर
सम्बन्धी माता – पिता , भाई भौजाई , स्त्री - पुत्र , वस्तु पदार्थ आदि में ममता
करना ‘मोह’ है | कारण कि शरीरादि में ममता , अहंता है नहीं केवल मानी हुई है |
अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना अदि के प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और
प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदि के प्राप्त होने पर दुखी होना , संसार में-
परिवार में विषमता , पक्षपात आदि विकार होना – ये सब का सब ‘कलिल’ अर्थात दलदल है
यह स्वयं चेतन होते हुए भी शरीरादि जड़
पदार्थो के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है | पर वास्तव में यह जिन चीजों के साथ
अपना सम्बन्ध जोड़ता है , वे चीजे इसके साथ सदा नही रह सकती और यह भी उनके साथ सदा
नहीं रह सकता | परन्तु मोह के कारण इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, बल्कि ये अनेक
प्रकार के नए नए सम्बन्ध जोड़कर संसार में अधिक से अधिक फंसता चला जाता है | जैसे
कोई राहगीर अपने गंतव्य स्थान पर पहुचने से पहले ही रास्ते में अपना डेरा लगाकर खेल
कूद, हंसी दिल्लगी आदि में अपना समय बिता दे , ऐसे ही मनुष्य यहाँ के नाशवान
पदार्थो का संग्रह करने और उनसे सुख लेने लग गया है | यही इसकी बुद्धि का मोहरूपी
दलदल में फंसना है |
मोहरूपी दलदल से से निकलने के दो ही
उपाय है- विवेक और सेवा | विवेक असत बिषयो से अरुचि करा देता है | मन में दूसरों कि
सेवा करने दूसरों को सुख पहचानें कि धुन लग जाये तो अपने सुख- आराम का त्याग करने की
शक्ति आ जाती है | दूसरों को सुख पहुचने का भाव जितना तेज होगा , उतना ही अपने सुख
कि इच्छा का त्याग होगा | जैसे शिष्य के लिए गुरु को पुत्र की माता – पिता को सुख
पहुचानें कि इच्छा हो जाती है , तो उसके अपने सुख कि इच्छा स्वतः सुगमता से मिट
जाती है | ऐसे ही कर्मयोगी का संसार मात्र कि सेवा करने का भाव हो जाता है तो उसके
सुख भोग कि इच्छा स्वतः मिट जाती है |
इसलिए भगवान कहते है जब तेरी बुद्धि
मोहरूपी दलदल को तर जायेगी तब इन लौकिक और पारलौकिक भोगो से तुझे बैराग्य हो
जायेगा |
जब बुद्धि में विवेक जाग्रत हो जाता है
तब समझ आ जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है संसार से जुडी वस्तुए शरीरादि बदल
रही है परन्तु मैं वही रहता हूँ | अतः इस बदलते संसार में मेरे को शांति कैसे मिल
सकती है ? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है ?
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