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Sunday, July 27, 2014

स्थि़र बुद्धि.....

अर्जुन के मन में यह समस्या थी की अपने गुरुजनों और अपने कुटुम्ब का नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म (युद्ध करने) का त्याग करना भी उचित नहीं है | एक तरफ तो कुटुम्ब की रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्म का पालन हो – इसमें अगर कुटुम्ब (परिवार) की रक्षा करे तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करे तो कुटुम्ब की रक्षा नहीं होगी – इन दोनों ही बातो में अर्जुन समस्या में है जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही है | अतः भगवान् शास्त्रीय मतभेदों में बुद्धि को निश्चल और परमात्मा प्राप्ति के विषय में बुद्धि को अचल करने की प्रेरणा देते है |



पहले तो साधक को इस बात को लेकर संदेह होता है की सांसारिक व्यवहार को ठीक किया जाये या परमात्मा प्राप्ति की जाये ? फिर उसका ऐसा निर्णय होता है की मुझे तो केवल संसार की सेवा करनी है और संसार से कुछ लेना नहीं है | ऐसा निर्णय होते ही साधक की भोगो से उपरति होने लगती है, वैराग्य होने लगता है | ऐसा होने के बाद जब साधक परमात्मा की तरफ चलता है तब उसके सामने साध्य और साधन के विषय में तरह तरह के शास्त्रीय मतभेद आते है | इससे ‘मेरे को किस साध्य को स्वीकार करना चाहिए किस साधन पद्धति से चलना चाहिए ‘—इसका निर्णय करना बड़ा ही कठिन हो जाता है परन्तु जब साधक सत्संग के द्वारा अपनी रूचि , श्रद्धा – विश्वास और योग्यता का निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न होने की स्थिति में भगवान के शरण होकर उनको पुकारता है , तब भगवत्कृपा से उसकी बुद्धि निश्चल हो जाती है अर्थात स्थि़र हो जाती है | दूसरी बात संपूर्ण शास्त्र , सम्प्रदाय आदि में जीव , संसार और परमात्मा – इन तीनो का ही अलग अलग रूपों में वर्णन किया  गया है | इसमें विचारपूर्वक देखा जाये तो जीव का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर जीव मैं हूँ – इसमें सब एकमत है; और संसार का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर संसार को छोडना है – इसमें सब एकमत है; और परमात्मा का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर उसको प्राप्त करना है – इसमें सब एकमत है| ऐसा निर्णय कर लेने पर साधक की बुद्धि निश्चल हो जाती है | मेरे को केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है—ऐसा दृढ़ निश्चय होने से बुद्धि अचल हो जाती है | अर्थात स्थिर हो जाती है |   

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