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Thursday, July 31, 2014

स्थिर बुद्धि लक्षण २....

दु:खो कि सम्भावना और उनकी प्राप्ति होने पर जिसके मन में विचलन नही होता अर्थात कर्तव्य कर्म करते समय कर्म करने में बाधा लग जाना , निंदा अपमान होना , कर्म का फल प्रतिकूल होना आदि आदि प्रतिकूलताँए आने पर उसका मन विचलित नहीं होता |

कर्मयोगी के मन हलचल , विचलन न होने का कारण ये है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है दुसरो के हित के लिए कर्म करना, कर्म के फल में कही आसक्ति, ममता, कामना न हो जाये—इस विषय में सावधान रहना | ऐसा करने से उसके मन में एक प्रसन्नता रहती है इसी प्रसन्नता के कारण कितनी हे प्रतिकूलताएँ आने के बाद भी उसका मन विचलित नहीं होता |


संसार के पदार्थो का मन पर जो रंग चढ़  जाता है उसको राग अर्थात मोह कहते है पदार्थो में राग होने पर अगर कोई अपने से ज्यादा ताकतवर व्यक्ति उन पदार्थो का नाश करता है या उनसे दूर करता है तो मन में ‘भय’ होता है | अगर व्यक्ति निर्बल होता है तो मन में ‘क्रोध’ होता है | परन्तु जिसके भीतर दूसरों को सुख पहुचानें , उनका हित करने का , उनकी सेवा करने का भाव जाग्रत् हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक मिट जाता है | राग के मिटने से भय और क्रोध भी नहीं रहते | अतः राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो जाता है |

कामना , वासना , आसक्ति, प्रियता, मोह क्या है ? मेरे को वस्तु मिल जाये ऐसी जो इच्छा होती है उसका नाम “कामना” है | कामना पूरी होने कि जो सम्भावना है उसका नाम “आशा” है | कामना पूरी होने के बाद भी पदार्थो के बढ़ने की तथा पदार्थो के और मिलने की जो इच्छा होती है, उसका नाम “लोभ” है | लोभ कि मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम “तृष्णा” है | 

तात्पर्य ये है कि उत्पत्ति और विनाशशील पदार्थो में जो खिंचाव जो मोह है उसी को वासना कामना आदि नामों से कहते है |

इसलिए भगवान कहते है कि जो दुःख और सुख की हलचल से रहित है जो आसक्ति से मोह से रहित है जिसके मन में भय या क्रोध नहीं है ऐसा मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है |

Tuesday, July 29, 2014

स्थिर बुद्धि लक्षण १ ...

जब भगवन अर्जुन से यह कहते है की जब तेरी बुद्धि मोह रूपी दलदल से तर जायेगी तो तू योग को प्राप्त हो जायेगा | तब अर्जुन के मन में शंका होती है कि जब मैं योग को प्राप्त हो जाऊंगा स्थितप्रग हो जाऊंगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे? इसीलिए वो भगवन से पूछ लेते है कि स्थिर बुद्धि मनुष्य के क्या लक्षण होते है ?

तब भगवन कहते है मनुष्य जिस काल में मन कि सभी कामनाओ का त्याग करदेता है और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है तब वह स्थिर बुद्धि कहलाता है



कामना न तो स्वयं में है और न मन में ही है | कामना तो आने जाने वाली है और स्वयं निरंतर रहने वाला है ; अतः स्वयं में कामना कैसे हो सकती है मन एक करण है और उसमे भी कामना निरंतर नहीं रहती बल्कि आती जाती रहती है |

साधक तो बुद्धि को स्थिर बनाता है परन्तु कामनाओ सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः स्वाभिक स्थिर हो जाती है |
जिसका उद्देश्य परमात्मा का है उसकी बुद्धि एक निश्चय वाली होती है ; क्योकि परमात्मा भी एक ही है | परन्तु जिसका उद्देश्य संसार का होता है उसकी बुद्धि असंख्य कामनाओ वाली होती है क्योकि सांसारिक वस्तुए असंख्य है  (गीता २:४१)


समता कि प्राप्ति के लिए बुद्धि की स्थिरता बहुत आवश्यक है कारण कि कल्याण के लिए मन की स्थिरता का उतना महत्व नहीं है जितना बुद्धि की स्थिरता का महत्व है | कर्मयोग में बुद्धि की स्थिरता ही मुख्य है अगर मन की स्थिरता होगी तो कर्मयोगी कर्म कैसे करेगा? कारण कि मन कि स्थिरता होने पर बाहरी क्रियाए रुक जाती है | भगवान भी योग (समता) में स्थित होकर कर्म करने कि आज्ञा देते है –‘योगस्थ: कुरु कर्मणि’

Sunday, July 27, 2014

स्थि़र बुद्धि.....

अर्जुन के मन में यह समस्या थी की अपने गुरुजनों और अपने कुटुम्ब का नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म (युद्ध करने) का त्याग करना भी उचित नहीं है | एक तरफ तो कुटुम्ब की रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्म का पालन हो – इसमें अगर कुटुम्ब (परिवार) की रक्षा करे तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करे तो कुटुम्ब की रक्षा नहीं होगी – इन दोनों ही बातो में अर्जुन समस्या में है जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही है | अतः भगवान् शास्त्रीय मतभेदों में बुद्धि को निश्चल और परमात्मा प्राप्ति के विषय में बुद्धि को अचल करने की प्रेरणा देते है |



पहले तो साधक को इस बात को लेकर संदेह होता है की सांसारिक व्यवहार को ठीक किया जाये या परमात्मा प्राप्ति की जाये ? फिर उसका ऐसा निर्णय होता है की मुझे तो केवल संसार की सेवा करनी है और संसार से कुछ लेना नहीं है | ऐसा निर्णय होते ही साधक की भोगो से उपरति होने लगती है, वैराग्य होने लगता है | ऐसा होने के बाद जब साधक परमात्मा की तरफ चलता है तब उसके सामने साध्य और साधन के विषय में तरह तरह के शास्त्रीय मतभेद आते है | इससे ‘मेरे को किस साध्य को स्वीकार करना चाहिए किस साधन पद्धति से चलना चाहिए ‘—इसका निर्णय करना बड़ा ही कठिन हो जाता है परन्तु जब साधक सत्संग के द्वारा अपनी रूचि , श्रद्धा – विश्वास और योग्यता का निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न होने की स्थिति में भगवान के शरण होकर उनको पुकारता है , तब भगवत्कृपा से उसकी बुद्धि निश्चल हो जाती है अर्थात स्थि़र हो जाती है | दूसरी बात संपूर्ण शास्त्र , सम्प्रदाय आदि में जीव , संसार और परमात्मा – इन तीनो का ही अलग अलग रूपों में वर्णन किया  गया है | इसमें विचारपूर्वक देखा जाये तो जीव का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर जीव मैं हूँ – इसमें सब एकमत है; और संसार का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर संसार को छोडना है – इसमें सब एकमत है; और परमात्मा का स्वरुप चाहे जैसा हो, पर उसको प्राप्त करना है – इसमें सब एकमत है| ऐसा निर्णय कर लेने पर साधक की बुद्धि निश्चल हो जाती है | मेरे को केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है—ऐसा दृढ़ निश्चय होने से बुद्धि अचल हो जाती है | अर्थात स्थिर हो जाती है |   

Friday, July 25, 2014

मोहरूपी दलदल ... और उससे मुक्ति

शरीर में ममता, अहंता करना तथा शरीर सम्बन्धी माता – पिता , भाई भौजाई , स्त्री - पुत्र , वस्तु पदार्थ आदि में ममता करना ‘मोह’ है | कारण कि शरीरादि में ममता , अहंता है नहीं केवल मानी हुई है | अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना अदि के प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदि के प्राप्त होने पर दुखी होना , संसार में- परिवार में विषमता , पक्षपात आदि विकार होना – ये सब का सब ‘कलिल’ अर्थात दलदल है


यह स्वयं चेतन होते हुए भी शरीरादि जड़ पदार्थो के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है | पर वास्तव में यह जिन चीजों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है , वे चीजे इसके साथ सदा नही रह सकती और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता | परन्तु मोह के कारण इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, बल्कि ये अनेक प्रकार के नए नए सम्बन्ध जोड़कर संसार में अधिक से अधिक फंसता चला जाता है | जैसे कोई राहगीर अपने गंतव्य स्थान पर पहुचने से पहले ही रास्ते में अपना डेरा लगाकर खेल कूद, हंसी दिल्लगी आदि में अपना समय बिता दे , ऐसे ही मनुष्य यहाँ के नाशवान पदार्थो का संग्रह करने और उनसे सुख लेने लग गया है | यही इसकी बुद्धि का मोहरूपी दलदल में फंसना है |

मोहरूपी दलदल से से निकलने के दो ही उपाय है- विवेक और सेवा | विवेक असत बिषयो से अरुचि करा देता है | मन में दूसरों कि सेवा करने दूसरों को सुख पहचानें कि धुन लग जाये तो अपने सुख- आराम का त्याग करने की शक्ति आ जाती है | दूसरों को सुख पहुचने का भाव जितना तेज होगा , उतना ही अपने सुख कि इच्छा का त्याग होगा | जैसे शिष्य के लिए गुरु को पुत्र की माता – पिता को सुख पहुचानें कि इच्छा हो जाती है , तो उसके अपने सुख कि इच्छा स्वतः सुगमता से मिट जाती है | ऐसे ही कर्मयोगी का संसार मात्र कि सेवा करने का भाव हो जाता है तो उसके सुख भोग कि इच्छा स्वतः मिट जाती है |
इसलिए भगवान कहते है जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को तर जायेगी तब इन लौकिक और पारलौकिक भोगो से तुझे बैराग्य हो जायेगा |


जब बुद्धि में विवेक जाग्रत हो जाता है तब समझ आ जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है संसार से जुडी वस्तुए शरीरादि बदल रही है परन्तु मैं वही रहता हूँ | अतः इस बदलते संसार में मेरे को शांति कैसे मिल सकती है ? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है ? 

Wednesday, July 23, 2014

मोक्ष प्राप्ति ....

समतातुक्त मनुष्य जीवित अवस्था में ही पुण्य पाप का त्याग कर देता है अर्थात उसको पुण्य पाप नहीं लगते , वह उनसे रहित हो जाता है | समता एक ऐसी विद्या है , जिससे मनुष्य संसार में रहता हुआ संसार से सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है | जैसे कमल का पत्ता जल से ही उत्पन्न होता है और जल में ही रहता है , पर वह जल से लिप्त नहीं होता , ऐसे ही समता युक्त मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहता है | पुण्य पाप उसका स्पर्श नहीं करते अर्थात वह पुण्य पाप से असंग हो जाता है |

क्योकि रागपूर्वक किये गए कर्म कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हो वे बांधने वाले ही है ; क्योकि उन कर्मो से ब्रह्मलोक की भी प्राप्ति क्यों न हो जाये तो भी वहां से लौट कर पीछे आना ही पड़ता है
(गीता ८:१६)

कर्म तो फल के रूप में परिणित होता ही है उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता | जैसे खेती में कोई निष्कामभाव से बीज बोये , तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य ही होगा | ऐसे ही कोई निष्काम भाव से कर्म करता है , तो उसको कर्म का फल मिलेगा ही , पर वह बंधनकारक नहीं होगा | (निष्कामभाव से कर्म करने का अर्थ है उससे अपने लिए कुछ न चाहना अर्थात उसके कोई कामना या इच्छा न करना कर्म तो फल के रूप में परिणित होगा ही पर सिर्फ उससे अपना सम्बन्ध हटा लेना है फिर वो चाहे कुछ दे या न दे उसमे हर्ष या शोक नहीं करना है क्योकि उसके साथ सम्बन्ध ही बंधन है)   अतः कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है – कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता, वासना का त्याग करना | इसका त्याग करने में सभी समर्थ है |

समतायुक्त मनीषी (बुद्धिमान) साधक जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते है | कारण की समता में स्थित हो जाने से उनमे राग द्वेष , कामना, वासना , ममता, आदि दोष किंचित मात्र भी नहीं रहते , अतः उनका पुनर्जन्म का कारण ही नहीं रहता है | वे जन्म मरणरूपी बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाते है| इसी को मोक्ष प्राप्त करना कहते है | जो हर मनुष्य का उद्देश्य है | 

समता ही योग है....

आसक्ति अर्थात मोह के त्याग का परिणाम क्या होगा ? सिद्धि असिद्धि में समता हो जायेगी | कर्म का पूरा होना अथवा न होना सांसारिक दृष्टि से उसका फल अनुकूल होना या प्रतिकूल होना, उस कर्म को करने से प्रसंशा या निंदा होना आदि आदि में जो सिद्धि और असिद्धि है उसमे सम रहना चाहिए | (निंदा होने का अर्थ ये नहीं है कि निंदनीय कर्म किया जाये अपने कर्तव्य के अनुसार कर्म करते हुए निंदा हो भी जाये तो भी सम रहना)


कर्मयोगी कि इतनी समता अर्थात निष्कामभाव होना चाहिए कि कर्मो कि पूर्ति हो चाहे न हो , फल कि प्राप्ति हो चाहे न हो अपनी मुक्ति हो चाहे न हो , मुझे तो केवल कर्तव्य कर्म करना है | साधक को इस संसार से असंगता का अनुभव न हुआ हो, उसमे समता न आई हो तो भी उसका उद्देश्य असंग होने का सम होने का ही हो | क्योंकी जो बात उद्देश्य में आ जाती है , वही अंत में सिद्ध हो जाती है |


समता ही योग है अर्थात समता ही परमात्मा का स्वरुप है वह समता अन्तःकरण में निरंतर बनी रहनी चाहिए | जिनका मन समता में स्थित हो गया , उन लोगो ने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया ; क्योकि ब्रह्मा निर्दोष और सम है ; अतः उनकी स्थिति ब्रह्मा में ही है |
(गीता २:४८)

“समता का नाम योग है” – यह योग की परिभाषा है | इसे दूसरे शब्दों में भी कहा गया है | “दुखो के संयोग का जिसमे वियोग है, उसका नाम योग है”

ये दोनों परिभाषाये वास्तव में एक ही है जैसे दाद की बीमारी में खुजली का सुख होता है और जलन का दुःख होता है, पर ये दोनों ही बीमारी होने से दुखरूप है, ऐसे ही संसार के सम्बन्ध से होने वाला सुख और दुःख – दोनों ही वास्तव में दुखरूप है| ऐसे संसार से सम्बन्ध विच्छेद का नाम ही ‘दुःख सयोंग वियोग’ है अतः चाहे दुखो के संयोग का वियोग अर्थात सुख दुःख से रहित होना कहे, एक ही बात है | 

Monday, July 21, 2014

सुखदायी और दुखदायी परिस्थति .... क्यों ?

मनुष्य शरीर में दो बाते है – पुराने कर्मो का फलभोग और नया कर्म | दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मो का फलभोग है अर्थात कीट पतंग , पशु पक्षी , देवता , ब्रह्मा लोक तक की  योनियाँ भोग योनियाँ है | इसलिए उनके पास ऐसा करो, ऐसा मत करो – यह विधान नहीं है | पशु पक्षी , कीट पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते है , उनका वह कर्म भी फलभोग में है | कारण कि उनके द्वारा किये जाने वाला कर्म प्रारब्ध के अनुसार पहले से रचा हुआ है | परन्तु मनुष्य शरीर तो केवल नए कर्म के लिए मिला हुआ है , जिससे मनुष्य अपना उद्धार कर ले | 


इस मनुष्य शरीर में दो विभाग है ---- एक तो इसके सामने पुराने कर्मो के फलरूप में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है ; और दूसरा यह नए कर्म करता है नए कर्मो के अनुसार हे इसके भविष्य का निर्माण होता है मनुष्य में नए कर्मो को करने कि स्वतंत्रता है परन्तु अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलने में ये परतंत्र है | परन्तु अनुकूल प्रतिकूल रूप से प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके मनुष्य अपने उद्धार की साधन सामग्री बना सकता है |

मनुष्य जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थति आती है , उस परिस्थिति को मनुष्य सुखदायी या दुखदायी तो मान सकता है पर उससे सुखी या दुखी होना कर्मो का फल नहीं बल्कि मूर्खता का फल है | परिस्थिति से तादाम्य करके ही वो सुख दुःख का भोक्ता बनता है अगर मनुष्य उस परिस्थति से तादाम्य न करके उसका सदुपयोग करे , तो वही परिस्थति उसके लिए उद्धार का साधन बन जाती है |

सुखदायी परिस्थति का सदुपयोग है -- दूसरों कि सेवा करना और दुखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है – सुखभोग कि इच्छा का त्याग करना |




दुखदायी परिस्थिति आने पर मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए , बल्कि ये विचार करना चाहिए कि हमने पहले सुखभोग कि इच्छा से जो पाप किये थे वे ही पाप दुखदायी परिस्थति के रूप में आकार नष्ट हो रहे है (क्योकि कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते है फिर चाहे वे शुभ हो या अशुभ) | इससे एक लाभ ये भी हो रहा है कि हम शुद्ध हो रहे है पापकर्म नष्ट हो रहे है | दूसरा लाभ ये होता है कि हमे चेतावनी मिलती है कि हम सुखभोग के लिए पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार कि दुखदायी परिस्थति आयेगी इसलिए सुखभोग कि इच्छा से अब कोई काम नहीं करना है बल्कि प्राणिमात्र के हित के लिए ही काम करना है |

कर्मफल का त्याग ही कर्मयोग....

भगवन अर्जुन को समझाते हुए ये कहते है .. प्राप्त कर्तव्य कर्म का पालन करने में ही तेरा अधिकार है | इसमें तू स्वतंत्र है| करण कि मनुष्य कर्मयोनि है | मनुष्य के सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करने के लिए नहीं है | पशु पक्षी आदि जड़ और व्रक्ष , लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते | देवता आदि में नया कर्म करने कि सामर्थ्य तो है , पर वे केवल पहले किये गए यज्ञ , दान, आदि शुभ कर्मो का फल भोगने के लिए ही है | वे भगवान के विधान अनुसार मनुष्यों के लिए कर्म करने कि सामग्री दे सकते है , पर केवल सुखभोग में लिप्त रहने के करण स्वयं नया कर्म नही कर सकते | नारकीय जीव भी भोग योनि होने के करण अपने दुष्कर्मो का फल भोगते है , नया कर्म नहीं कर सकते | नया कर्म करने में तो केवल मनुष्य का अधिकार है | भगवन ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करने के लिए यह अंतिम मनुष्य जन्म दिया है | अगर यह कर्मो को अपने लिए करेगा तो बंधन में पड़ जायेगा | और अगर कर्मो को न करके आलस्य प्रमाद में पड़ा रहेगा तो बार बार जन्मता मरता रहेगा | अतः भगवान कहते है कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है |

इसलिए भगवान कहते है कि तेरा कर्मो को ही करने में अधिकार है फल कि इच्छा में नहीं क्योकि जब कर्म सेवाभाव रूपी होंगे तो उनसे फल कि इच्छा स्वयं खत्म हो जायेगी ... क्योकि फल कि इच्छा तब ही होती है जब कर्म अपने लिए किये जाये | फल की इच्छा होने का मतलब ही है सकाम रूप से कर्म किया जाना | जबकि भगवान अर्जुन को निष्कामता पूर्वक कर्म करने का उपदेश देते है |


शुभ क्रियायो में फल कि इच्छा न होने पर भी मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया , किसी का हित हो गया , किसी को सुख पहुंचा – ऐसा भाव हो जाता है तो भी ये कर्म फल का हेतु बनना हुआ | अर्थात कर्मो के साथ बंधन रहा | कर्म फल में आसक्ति अर्थात प्रियता रहने से जैसा बंधन होता है , वैसा ही बंधन कर्म न करने में आलस्य , प्रमाद आदि होने में होता है अर्थात उनका भी एक सुख होता है | तात्पर्य ये हुआ कि राग आसक्ति प्रियता मोह जहां कही भी हुआ बह बांधने वाल ही हो जायेगा |

अपने कर्तव्य के द्वारा दूसरे के अधिकार कि रक्षा करना और कर्मफल अर्थात अपने अधिकार का त्याग करना ... ये ही कर्मयोग है...जो ईश्वर प्राप्ति के तीन साधनों में से एक है 

Friday, July 18, 2014

समता क्या है.....

समता दो तरह की होती है – अन्तःकरण की समता और स्वरुप की समता | समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है उस समरूप परमात्मा में जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्र पर विजय प्राप्त कर ली ,वह जीवन्मुक्त हो गया | परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से होती है |
(गीता ५:१९)

अन्तःकरण की समता है – सिद्धि असिद्धि में सम रहना | अर्थात किसी भी स्थिति में मन को शांत रखना, समान रखना | प्रसंशा हो जाये अथवा निंदा हो जाये, कार्य सफल हो जाये या असफल हो जाये, लाखो रुपए आ जाये या लाखो रूपए चले जाये पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो | सुख दुःख , हर्ष शोक आदि न हो | मन विचलित न हो |

इस समता का कभी नाश नहीं होता | कल्याण के सिवा इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं | जन्म- मरणरूपी महान भय से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति हे इस समता का फल है |

मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत, आदि कोई भी पुण्य कर्म करे , वह फल देकर नष्ट हो जाता है ; परन्तु साधन करते करते अन्तःकरण में थोड़ी से से भी समता आ जाये तो वह नष्ट नहीं होती, बल्कि कल्याण कर देती है , साधन में समता जितनी ऊँची चीज है, मन की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है | मन एकाग्र होने से सिद्धिया तो प्राप्त हो जाती है , पर कल्याण नहीं होता | परन्तु समता आने से मनुष्य संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है | (गीता ५:३)

Thursday, July 17, 2014

समता का फल....

कर्मो को करने के दो ही तरीके हो सकते है .. सकामभावपूर्वक और निष्कामभावपूर्वक | सकामभावपूर्वक करने का अर्थ कर्मो के साथ संबंध रखना है अर्थात उनके परिणाम में सुखी या दुखी होना है परन्तु निष्कामता का अर्थ है समता से सयुक्त होना अर्थात सुख या दुःख में समान रहना |

सकामभावपूर्वक किये गए कर्मो में अगर मंत्र उच्चारण , यज्ञ विधि आदि में कोई कमी रह जाये तो उसका फल उल्टा हो जाता है जैसे कोई पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमे विधि की त्रुटि हो जाने से पुत्र का होना तो दूर रहा , घर में किसी की म्रत्यु हो जाती है अथवा विधि की कमी रहने से इतना उल्टा फल न भी हो तो भी पुत्र  पूर्ण अंगों के साथ नहीं जन्मता| परन्तु जो मनुष्य इस सम् बुद्धि  को अपने अनुष्ठान (क्रिया कलापों) में लाने का प्रयत्न करता है उसके प्रयत्न का कभी उल्टा फल नहीं हो सकता | कारण की इसके प्रयत्न में फल की इच्छा नहीं होती | जब तक फल की इच्छा रहती है तब तक समता नहीं आती और समता आने पर फल की इच्छा नहीं रहती | अतः उसके अनुष्ठान का विपरीत फल होना संभव ही नहीं |

थोड़ी सी भी समता जीवन में आचरण में आ जाये , तो यह जन्म – मरणरूपी महान भय से रक्षा कर लेती है जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है , ऐसे यह समता धन संपत्ति आदि को फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात इसका फल नाशवान धन सम्पति आदि की प्राप्ति नहीं होता| इस समता का किसी भी काल में नाश नहीं हो सकता |

जैसे कोई मुसाफिर चलते चलते रास्ते में रुक जाये अथवा सो जाये तो बह जहाँ से चला था वहाँ लौट कर नहीं आ जाता बल्कि जहाँ तक वह पहुच गया वहाँ तक तो रास्ता कट ही गया | ऐसे हे जितनी समता जीवन में आ गयी, उसका कभी नाश नहीं होता |

गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है –-- समता | दूसरे लक्षण आये न आये , जिसमे समता आ गयी गीता उसे सिद्ध कह देती है | जिसमे दूसरे सब लक्षण आ जाये पर समता न आये गीता उसे सिद्ध नहीं कहती |   

Wednesday, July 16, 2014

व्यव्हार में परमार्थ ...तत्व कि प्राप्ति ..

गीता ब्यवहार में परमार्थ की विलक्षण कला बताती है , जिसे मनुष्य प्रत्येक परिस्थति में रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरह का व्यव्हार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके | अन्य ग्रन्थ तो प्राय: ये कहते है कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधू हो जाओ , एकांत में चले जाओ ; क्योकि व्यव्हार और परमार्थ— दोनों  एक साथ नहीं चल सकते | परन्तु गीता कहती है कि आप जहाँ है , जिस मत को मानते है , जिस सिद्धांत को मानते है , जिस धर्म , सम्प्रदाय , वर्ण , आश्रम आदि को मानते है , उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलो कल्याण हो जायेगा | एकांत में रह कर बरसो तक साधना करने पर ऋषि मुनियों को जिस तत्व कि प्राप्ति होती थी , उसी तत्व कि प्राप्ति गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायेगी |सिद्धि असिद्धि में सम रह कर निष्कामभाव पूर्वक कर्तव्य कर करना हे गीता के अनुसार व्यवहार करना है....


अर्जुन न तो राज्य चाहते थे न स्वर्ग चाहते थे वो तो सिर्फ युद्ध से होने वाले पाप से बचना चाहते थे | इसलिए भगवन मानो ये कहते है कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता , पर पाप से बचना चाहता है तो युद्ध रूपी कर्तव्य को समता पूर्वक कर , फिर तुझे पाप नहीं लगेगा | कारण कि पाप लगने में युद्ध हेतु नहीं है बल्कि विषमता (पछपात), कामना , स्वार्थ, अहंकार, है युद्ध तो तेरा कर्तव्य है | कर्तव्य न करने से और अकर्तव्य करने से हे पाप लगता है...
अर्थात सिद्धि असिद्धि में सामान रहकर अपने कर्तव्य का पालन करना ही व्यवहार में परमार्थ की  कला है |

Thursday, July 3, 2014

लखपति होने का सुख ...

अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति , परिस्थति , घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख सामग्री का अपने सुख , आराम ,सुबिधा के लिए उपयोग करेंगे और उससे खुश होंगे तो ये अनुकूलता का भोग होगा | परन्तु निर्बाह बुद्धि से उपयोग करते हुए उसे आभावग्रस्तो की सेवा में लगा दे तो यह अनुकूलता का सदुपयोग हुआ | अत: सुख सामग्री को दुखियों का ही समझे | उसमे दुखियों का ही हक है | 

मान लो हम लखपति है तो हमे लखपति होने का सुख होता है, अभिमान होता है | परन्तु ये सब तब होता है जब हमारे सामने कोई लखपति न हो | अगर हमारे सामने, जो हमारे  देखने सुनने में आते है , वे सब के सब करोड़पति हो , तो क्या हमे लखपति होने का सुख मिलेगा ? बिलकुल नहीं मिलेगा | अत: हमे लखपति होने का सुख तो आभावग्रस्तो, दरिद्रो ने ही दिया है | अगर हम मिली हुई सुख सामग्री से आभावग्रस्तो की सेवा न करके स्वंय सुख भोगते है , तो हम स्वंय को सुख देने वालो के उपकार को भूल रहे है | इसी से सब अनर्थ पैदा होते है | कारण ये है कि हमारे पास जो भी सुख सामग्री होने का सुख है अभिमान है वो दींन दुखियों का दिया हुआ ही है | अत: उस सुख सामग्री को दींन दुखियों कि सेवा में लगा देना ही हमारा कर्तव्य होता है |